SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-५ स्थितमिति । निधानं प्राप्तनिर्धना' इव हृष्टाः सपरिजनेन वन्दितुं गताः। वन्दित्वा स्वकोष्ठे उपविष्टाः । पदार्थावबोधनान्तरं भगवान पद्मन पृष्टः- भरतसंत्रासानन्तरं त्रिजगद्भूषणस्य कोपाकरणे कवलादिपरिहरे किं कारणमिति । भगवतोक्तं - जातिस्मरणम् । तर्हि भवसंबन्धिनिरूपणे महाप्रसादः । मुनिरुभयोर्भवान्तरमाह अस्यामयोध्यायां क्षत्रियसुप्रभप्रह्लादिन्योरपत्ये सूर्योदयचन्द्रोदयौ जातौ। सह वृषभस्वामिना प्रबजितौ मरीचिना सह नष्टौ । बहुभवान् तिर्यग्गतो परिभ्रम्य कुरुजङ्गलदेशे हस्तिनापुरेशहरिपतिमनोहर्योश्चन्द्रोदयः कुलंकरनामा पुत्रोऽभूत् । श्रीदामानाम्नों राजपुत्री परिणीतवान् । तत्प्रधानविश्वावस्वग्निकान्त्योः सूर्योदयो मूढश्रुतिनामा पुत्रोऽभूत् । कुलं करो राज्ये, इतरः प्राधान्ये स्थितः। एकदा तापसान् पूजयितुं गच्छता कुलंकरेणाभिनन्दनभट्टारकानभिवन्द्य धर्ममाकर्ण्य व्रतानि गृहीतानि । मुनिनोक्तम्-शृणु वृत्तान्तमेकम् । तव पितामहो रगस्यनामा तापसत्वेन मृत्वा तापसाश्रमसमीपे शुष्ककाष्ठकोटरे सर्पत्वमापनः, इति निरूपिते तं च तथाविधमवलोक्य दृढव्रती बभूव । तानि च दृढव्रतानि मूढश्रुतिना नाशितानि । तावुभौ देशभूषण केवलीका समवसरण ( गन्धकुटी ) स्थित है। यह सुनकर जैसे निर्धन मनुष्य अकस्मात् निधिको पाकर हर्षित होते हैं वैसे ही वे सब हर्षको प्राप्त हुए। उन्होंने परिवारके साथ जाकर केवलीकी वन्दना की। पश्चात् वे अपने कोठेमें बैठ गये। धर्मश्रवणके पश्चात् रामचन्द्रने पूछा कि हे भगवन् ! भरतसे पीड़ित होकर त्रिलोकमण्डन हाथीने क्रोधके परित्यागके साथ ही भोजनपानादिका भी परित्याग किस कारणसे किया है। भगवान् बोले---- उसने जातिस्मरणके कारण वैसा किया है । यह सुनकर रामचन्द्रने प्रार्थना की कि भगवन् ! तब तो मुझे उसके भवोंके निरूपण करनेकी कृपा कीजिए । तब मुनिने उन दोनोंके भवोंका निरूपण इस प्रकार किया इसी अयोध्यापुरीमें क्षत्रिय सुप्रभ और उसकी पत्नी प्रह्लादिनीके सूर्योदय और चन्द्रोदय नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। वे दोनों वृषभ जिनेन्द्र के साथ दीक्षित होकर मरीचिके साथ भ्रष्ट हो गये । इस कारण उन्होंने बहुत भवों तक तियच गतिमें परिभ्रमण किया। तत्पश्चात् उनमेंसे चन्द्रोदय कुरुजांगल देशके भीतर हस्तिनापुरके स्वामी हरिपति और उसकी पत्नी मनोहरीके कुलंकर नामका पुत्र उतन्न हुआ। उसका विवाह श्रीदामा नामकी राजपुत्रीके साथ सम्पन्न हुआ। उक्त राजाके जो विश्वावसु नामक प्रधान था उसकी पत्नीका नाम अग्निकान्ति ( अग्निकुण्डा ) था । सूर्योदय इन दोनोंके मूढश्रुति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुलंकर राजपदपर और दूसरा ( मूलश्रुति ) प्रधानके पदपर प्रतिष्ठित हुआ। एक समय कुलंकर तापसोंकी पूजा करने जा रहा था । मार्गमें उसे अभिनन्दन भट्टारकके दर्शन हुए। उसने वन्दनापूर्वक उनसे धर्मश्रवण करके व्रतोंको ग्रहण किया । मुनिने उससे कहा कि एक वृत्तान्त सुनो-तुम्हारा रगस्य(?) नामका पितामह तापस स्वरू पसे मरकर तापसोंके आश्रमके समीपमें सूखे काष्ठके कोटरमें सर्प पर्यायको प्राप्त हुआ है । इस वृत्तान्तको सुनकर कुलंकर वहाँ गया और उसने अपने पितामहको मुनिके कहे अनुसार ही वहाँ सर्प पर्यायमें देखा । इससे वह ग्रहण किये हुए अपने व्रतोंमें अधिक दृढ़ताको प्राप्त हुआ। उसके १. ब प्राप्तानिर्द्धना। २. फ पृष्टभरतसंत्रासनंतरा। ३. प श कोपकारणे कवलादिपरिहारेण, ब कोपकारणे कवलादिपरहारे । ४. फ भगवानोक्तं । ५. फ संबंधिनिरूपते मे महा० । ६. ब प्राजिती । ७. ब विश्ववश्वग्निकांडयोः । ८. मूलश्रुतिः । ९. प श महोरगस्यनामा, फ ०महोरेभ्यनामा ब ० महोरगभ्यनामा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy