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________________ :१-५] . १. पूजाफलम् ५ देवोऽभवत्स जिनपूजनचेतसैव नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥५॥ अस्य कथा । तथाहि'-रामायणे रामो रावणं निहत्य पुनरयोध्यामागतः सन् भरतायोक्तवान्-यदभीष्टं पुरं तद् गृहाण । भरतेनोक्तम्-महाप्रसादः, त्रिलोकशिखरमभीष्टं, तद् गृह्यते । रामेणोक्तम्-कियत्कालं राज्यं कृत्वा मया सह तद् गृहाण । भरतेनोक्तम्-वारद्वयमन्तरितम्, अत इदानीमेव गृह्यते, इति गच्छन् लक्ष्मीधरेण धृतः। रामेणोक्तम्-मम चित्तवृत्त्या गन्तव्यमिति स्थापितः। रागवर्धननिमित्तं जलकेली प्रारब्धा। भरतोऽन्तःपुरेण विलासिनीजनेन च क्रीडितुं प्रेषितः । स गत्वा सरोवरेऽनुप्रेतां भावयन् स्थितः । जनेन सहागमनसमये स्तम्भमून्मूल्य रामलक्ष्मीधरावुल्लंघ्य निर्गतत्रिजगद्भूषणेन राज्यप्रासादमूलस्तम्भन भरतमेलापकमवलोक्य मारयितुमागतेन च्यादिजनस्योत्पादितभयेन भरतसंत्रासादुपशान्तचित्तेन निजस्कन्धमारोप्य पुरं प्रवेशितः । तदनु लोकाश्चर्य जातम् । स च हस्ती तद्दिनमादिं कृत्वा कवलं पानीयं च न गृह्णाति । तत्परिचारकैरागत्य राघवाय निवेदितम् । चतुर्भिरपि गत्वा संबोधितोऽपि किंचिदपि नाभ्युपगच्छति । रामादयः सचिन्ता बभूवुः। एवं त्रिषु दिनेषु गतेषु ऋषिनिवेदकेनानगत्य विज्ञप्तः- देशभूषणसमवसरणं भवत्पुण्योदयेन महेन्द्रोद्याने रागी था वह केवल जिनपूजामें मन लगानेसे ही देव हुआ है। इसीलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करता हूँ ॥५॥ ____ इसकी कथा- रामायण ( पद्म चरित ) में जब रामचन्द्र रावणको मारकर अयोध्या नगरीमें वापिस आये तब उन्होंने भरतसे कहा कि जो नगर तुम्हें अभीष्ट हो उसे ग्रहण करो। यह सुनकर भरतने कहा कि हे महाभाग ! मुझे तीन लोकका शिखर ( सिद्धक्षेत्र ) अभीष्ट है, उसे मैं ग्रहण करता हूँ। तब रामने कहा कि कुछ समय राज्य करके उसे मेरे साथ ग्रहण करना । इसपर भरतने कहा कि इस कार्यमें मुझे दो बार विघ्न उपस्थित हुआ है । अतएव अब मैं उसे इसी समय ग्रहण करना चाहता हूँ। यह कहकर भरत जानेको उद्यत हो गया। तब उसे लक्ष्मणने पकड़ लिया। राम बोले कि हे भरत, तुम्हें मेरे मनके अनुसार चलना चाहिए- मेरी आज्ञा मानना चाहिए, ऐसा कह कर उन्होंने भरतको दीक्षा ग्रहण करनेसे रोक दिया । उन्होंने भरतको अनुरक्त करनेके लिए जलक्रीड़ाकी योजना करते हुए भरतको अन्तःपुर और विलासिनीजनके साथ क्रीड़ाके निमित्त भेज दिया । वह जाकर सरोवरके ऊपर बारह भावनाओंका चिन्तन करता हुआ स्थित रहा। जन समुदायके साथ यात्राके समयमें त्रिलोकमण्डन हाथी खम्भेको उखाड़कर तथा राम-लक्षमणको लांधकर वहाँ आ पहुँचा। राज्यरूप प्रासादका मूल स्तम्भभूत वह हाथी भरतके निमित्तसे आयोजित इस मेलाको देखकर मारनेके लिए आया। इससे स्त्री आदि जनोंको बहुत भय उत्पन्न हुआ। किन्तु भरतके द्वारा पीड़ित होकर उसका मन शान्त हो गया। उसने भरतको अपने कन्धेपर बैठाकर नगरमें पहुँचाया । यह देखकर लोगोंको बहुत आश्चर्य हुआ। उस दिनसे उस हाथीने खाना-पीना छोड़ दिया । तब उसकी परिचर्या करनेवाले सेवक जनोंने आकर इसकी सूचना रामचन्द्रको दी । तब उसे रामचन्द्र आदि चारों ही भाइयोंने जाकर समझाया । किन्तु उसने खाना-पीना आदि कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इससे रामादिको बहुत चिन्ता हुई । इस प्रकार तीन दिन बीत गये । इस बीचमें ऋषिनिवेदकने आकर रामचन्द्रसे निवेदन किया कि आपके पुण्योदयसे महेन्द्र उद्यानमें १. प फ श 'तथाहि' नास्ति, ब-प्रती त्वस्ति । २. फ महाप्रसाद ! । ३. श कवलपानीयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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