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________________ : ६-१०, ५१ ] ६. दानफलम् १० ३०९ स्थितः इति मिथ्यादृष्टिरपि धारणो राजा सत्पात्रदानफलेनैवंविधोऽभूदन्यः सदृष्टिस्ततः किं न स्यादिति ॥२॥ नानाकल्पांघ्रिपैर्ये समलसुखदेश्छन्ना सुकुरवो जातस्तेषु प्रभूतः सुगुणगणयुतो दानात् सुविमलात् । मृत्वा विद्युत्प्रपाताच्छयनतलगतो भामण्डलनृप स्तस्माहानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥१०॥ अस्य कथा- अत्रैव विजया दक्षिणश्रेण्यां रथनू पुरे सीतादेवीभ्राता विद्याधरचक्रो प्रभामण्डलो राजा सुखेन राज्यं कुर्वस्तस्थौ। इतोऽयोध्यायामिभ्यक.दम्बकाम्बिकयो पुत्राव शोकतिलको जातौ । सीतात्यजनमाकर्ण्य पितापुत्राः द्युतिभट्टारकनिकटे दीक्षिताः, सर्वागमधराश्च भूत्वा त्रयोऽपि ताम्रचूडपुरे चैत्यालयवन्दनार्थ गच्छन्तः पञ्चाशत्योजनविस्तृत सीतार्णवाटवीमध्ये अासन्नप्रावृषि गृहीत योगाः स्वेच्छाविहारं गच्छता प्रभामण्डलेन सोपसर्गा दृष्टाः, तदनु समोपे ग्रामादीन् कृत्वा तेभ्य श्राहारदानं दत्तम् । तेन पुण्यसंग्रहं कृत्वा वहुकालं राज्यं कुर्वन् तस्थौ, एकस्यां रात्रौ स्वशयनतले सुन्दरमालादेव्या सुप्तो विद्युता रानियों, रामादि पुत्रों एवं अन्य बन्धुजनोंके साथ महाविभूतिसे परिपूर्ण राज्यका उपभोग करता हुआ स्थित हो गया। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि भी वह धारण राजा सत्पात्रदानके फलसे जब ऐसा वैभवशाली हुआ है तब क्या उसके प्रभावसे सम्यग्दृष्टि जीव चैसा न होगा ? अवश्य होगा ॥९॥ अनेक उत्तम गुणोंसे संयुक्त भामण्डल राजा शय्यातलपर स्थित होते हुए (सुप्त अवस्था) बिजलीके गिरनेसे मृत्युको प्राप्त होकर निर्मल दानके प्रभावसे उन कुरुओं (उत्तम भोगभूमि) में उत्पन्न हुआ जो कि अत्यन्त निर्मल सुख देनेवाले अनेक 'कल्पवृक्षोंसे व्याप्त हैं । इसलिये निर्मल गुणोंके समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको निरन्तर उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥१०॥ - इसकी कथा इस प्रकार है- यहींपर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें स्थित रथनूपुर नगरमें सीता देवीका भाई व विद्याधरोंका चक्रवर्ती प्रभामण्डल राजा राज्य करता हुआ स्थित था। इधर अयोध्या पुरीमें धनी (सेठ) कदम्बक और अम्बिका (उसकी पत्नी) के अशोक और तिलक नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। पिता कदम्बक और वे दोनों पुत्र सीताके परित्यागकी वार्ताको सुनकर द्यतिभट्टारकके निकटमें दीक्षित हो गये। ये तीनों समस्त श्रतके पारगामी होकर ताम्रचूड़ पुरमें स्थित चैत्यालयकी वन्दना करनेके लिये जा रहे थे। मार्गमें पचास योजन विस्तार्ण सीतार्णव नामक वनके मध्यमें पहुँचनेपर वर्षाकाल (चातुर्मास) का समय निकट आ गया। इसलिए उन तीनों मुनियोंने उसी वनके मध्यमें वर्षायोगको ग्रहण कर लिया। उस समय प्रभामण्डल इच्छानुसार घूमता हुआ वहाँ से निकला । वह मुनियोंके इस उपसर्गको देखकर वहींपर निर्मापित ग्रामादिकोंमें स्थित होता हुआ उन्हें आहार देने लगा। इससे उसने बहुत पुण्यका संचय किया। तत्पश्चात् उसने बहुत समय तक राज्य किया। एक दिन रातमें वह अपनी शय्याके ऊपर सुन्दरमाला देवीके साथ सो रहा था। इसी समय अकस्मात् बिजली गिरी और उससे उसकी १. फ ब सुखदैश्च्युत्वा श सुखदैश्छन्नां । २. फ ताम्रचूलपुर ब ताम्रचूलपुरे। ३. श पञ्चाशत्त. योजन । ४. ब तेन इति पुण्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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