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________________ ६.दानफलम् ६ : ६-६, ४७ ] ३०१ इति । एवं सकृद्दानेन सुकेतुर्देवानामपि दुर्जयो जज्ञे मुक्तिं च लेभे किमन्यो न स्यादिति ॥५॥ [४७] 'श्रीमानारम्भकाख्यो द्विजकुलविमलश्चारुप्रवचनो दत्तादानादनूनं सुखममलमलं दैवं नृभवजम् । भुक्त्वाभूच्चक्रवर्ती जितरिपुगणकः ख्यातो हि सगरः तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥६।। अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे पद्मपुरे विप्रः शङ्खदारुकस्तदपत्यमारम्भको महाविद्वान् बहनध्यापयन् स्थितो भद्रमिथ्यादृष्टिः। स एकदा चर्यार्थमागतं महामुनि स्थापयामास । तदानजनितपुण्येन भोगभूमौ जातः, ततः स्वर्गे उत्पन्नस्ततः आगत्य धातकीखण्डे चक्रपुरेशहरिवर्मगान्धार्योः पुत्रो व्रतकीर्तिर्जातः, तपसा दिविजः, तस्मादागत्य जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुराधिपाभयघोष-चन्द्राननयोरपत्यं पयोबलो भूत्वा तपसा प्राणते संजातः । ततश्च्युत्वास्मिन् भरते पृथ्वीपुरेश्वरजयंधर-विजययोरपत्यं जयकीर्तिभूत्वा तपसानुत्तरे स जातः। ततः आगत्यात्रैवायोध्यायां राजा जितशत्रुरजितनाथस्य पिता, तद्भ्राता विजयसागरो भार्या विजयसेना, तयोः सगरनामा पुत्रोऽजनि द्वितीयः सकलचक्रवर्ती, एक ही बार मुनिको दान देनेके कारण देवोंसे भी अजेय होकर मोक्षको प्राप्त हुआ है तब निरन्तर दान देनेवाला भव्य जीव क्या अनुपम सुखका भोक्ता न होगा ? अवश्य होगा ॥५॥ निर्मल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न होकर मधुर भाषण करनेवाला श्रीमान् आरम्भक नामका ब्राह्मण मुनिके लिये दिये गये दानके प्रभावसे देव और मनुष्य भव सम्बन्धी महान् निर्मल सुखका भोक्ता हुआ और तत्पश्चात् वह समस्त शत्रुसमूहको जीतनेवाला सगर नामसे प्रसिद्ध द्वितीय चक्रवर्ती हुआ। इसलिये निर्मल गुणसमूहके धारक भव्य जीवोंको मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥६॥ इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर पद्मपुरमें एक शंखदारुक नामका ब्राह्मण रहता था। उसके एक आरम्भक नामका पुत्र था जो बहुत विद्वान् था। वह भद्रमिथ्यादृष्टि बहुत-से शिष्यों को पढ़ाता हुआ कालयापन कर रहा था । एक समय उसने चर्याके लिए आये हुए महामुनिको विधिपूर्वक आहार दिया। उस दानसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे वह भोगभूमिमें और तत्पश्चात् स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। इसके बाद वह स्वर्गसे च्युत होकर धातकीखण्डद्वीपके अन्तर्गत चक्रपुरके राजा हरिवर्मा और रानी गान्धारीके व्रतकीर्ति नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। फिर वह तपके प्रभावसे स्वर्गमें देव हुआ। वहाँ से आकर वह जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्वविदेहके अन्तर्गत मंगलावती देशमें स्थित रत्नसंचयपुरके राजा अभयघोष और रानी चन्द्राननाके पयोबल नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् वह तपको स्वीकार करके उसके प्रभावसे प्राणत स्वर्गमें देव हुआ। फिर वहाँ से च्युत होकर इस भरत क्षेत्रमें पृथिवीपुरके राजा जयंधर और रानी विजयाके जयकीर्ति नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् मुनि होकर वह तपके प्रभावसे अनुत्तरमें अहमिन्द्र हुआ। फिर वहाँसे च्युत होकर अयोध्या नगरीमें राजा जितशत्रु-अजितनाथ तीर्थकरके पिता–के भाई विजयसागर और विजयसेनाके सगर नामका पुत्र हुआ । वह द्वितीय चक्रवर्ती था। सगर चक्र १. श श्रीमन्नारंभ। २. प दत्वादाना, ब श दत्वा दाना । ३. ज सुखममलं देवं । ४. ज प श विषय । ५. ब नुत्तरे संभूय तत आ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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