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________________ ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४ २८९ नववयोभिः प्रधानर्यथेष्टमटितुं लग्नः। एकस्यां रात्रौ राज्ञः शिरः प्रणयकल हेन वसुमत्या राश्या पादेनाहतम् । राजा प्रातरास्थाने मन्त्रिणोऽपृच्छत्- मच्छिरो येन पादेनाहतं तत्पादस्य किं कर्तव्यम् । सर्वैः संभूयोक्तम् ‘से पादः छेदनीयः' इति । श्रुत्वा नृपो विषण्णोऽभूत्, श्रेष्ठिनमाहूय तच्छास्ति पृष्टवान् । सोऽवोचत्-- गुरुपादश्चेत्पूजनीयो वनितापादश्चेन्नूपुरादिनालंकरणीयो बालकपादश्चेत्स वालो मोदकादिना प्रीणनीय इति । श्रुत्वा नृपः संतुतोष । तस्य प्रतिदिनमागन्तुं निरूपितवान् । एवं स श्रेष्ठो राजमान्यः सुखेन स्थितः। ___ एकस्मिन् दिने श्रेष्ठिनः केशान् विरलयन्ती धनवती पलितमालोक्य श्रेष्ठिनोऽदर्शयत् । स च तद्दर्शनेन वैराग्यं जगाम । कुबेरकान्तं लोकपालस्य समर्प्य बहुभिर्वरधर्मभट्टारकान्ते तपसा निर्वृतः। इतः कुवेरकान्तप्रियदत्तयोः पुत्राः कुबेरदत्त-कुबेरमित्र-कुबेरदेव-कुबेरप्रिय-कुबेरकन्दाः पञ्च जज्ञिरे। एकस्मिन् दिने कुबेरकान्तश्रेष्ठी तानेवामितगतिजङ्घाचारणान् स्थापितवान् , पञ्चाश्चर्यायवाप। तत्पष्पवष्टयादिकं दृष्टा तौ कपोतावानन्दं कुर्वन्ताववलोक्य कुबेरकान्तोऽव्रत 'हे रतिवररतिवेगे, एतत्पुण्यसहस्रकभागो भवद्भ्यां दत्तः' इति । तदा तौ तुष्टौ नवीन अवस्थावाले मन्त्रियोंके साथ घूमने-फिरने में लग गया। एक दिन रातमें वसुमती रानीने प्रणयकलहमें राजाके शिरको पैरसे ताड़ित किया । तब राजाने सबेरे सभागृहमें आकर मन्त्रियोंसे पूछा कि जिस पैरसे मेरे शिरमें ठोकर मारी गई है उस पैरके विषयमें क्या किया जाय ? उत्तरमें सब मन्त्रियोंने मिलकर कहा कि उस पैरको छेद डालना चाहिये । यह उत्तर सुनकर राजाको बहुत विषाद हुआ। तत्पश्चात् राजाने सेठ कुबेरमित्रको बुलाकर उससे भी उपर्युक्त अपराधविषयक दण्डके सम्बन्धमें पूछा। सेठने उत्तरमें कहा कि आपके शिरको ताड़ित करनेवाला वह पैर यदि गुरुका है तब तो वह पूजनेके योग्य है, यदि वह पत्नीका है तो नपुर (पैजन) आदिके द्वारा अलंकृत करनेके योग्य है, और यदि वह बालकका है तो फिर उस बालकको लड्डू आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । सेठके इस उत्तरको सुनकर राजाको बहुत सन्तोष हुआ। अब उसने सेठको प्रतिदिन सभागृहमें आनेके लिए कह दिया। इस प्रकारसे वह कुबेरमित्र सेठ राजासे सम्मानित होकर सुखसे रहने लगा। एक दिन सेठकी पत्नी धनवतीने उसके बालोंको विखेरते हुए एक श्वेत बालको देखकर उसे सेठको दिखलाया। उसे देखकर सेठ कुबेरमित्रको वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने अपने पुत्र कुबेरकान्तको लोकपालके लिये समर्पित करके वरधर्म भट्टारकके पासमें बहुतोंके साथ दीक्षा धारण कर ली । अन्तमें वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। इधर कुबेरकान्त और प्रियदत्ताके कुबेरदत्त, कुबेरमित्र, कुबेरदेव, कुबेरप्रिय और कुबेरकन्द नामके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। एक दिन कुबेरकान्त सेठने उन्हीं अमितगति नामके जंघाचारण मुनिका आहारार्थ पड़िगाहन किया । उनका निरन्तराय आहार हो जानेपर उसके यहाँ पंचाश्चर्य हुए। उन पुष्पवृष्टि आदिरूप पंचाश्चर्यों को देखकर पूर्वोक्त कबूतरयुगलको बहुत आनन्द हुआ। उनके आनन्दको देखकर कुबेरकान्तने उनसे कहा कि हे रतिवर और रतिवेगे ! इस आहारदानसे जो मुझे पुण्य प्राप्त हुआ है उसका हजारवाँ भाग मैं आप दोनोंको देता हूँ। १. फ राज्ञः प्रणय', २. व सव्व: भूयोक्तं स । ३. श विरलती । ४. फ निर्वृत्तः । ५. ज तामेवा । Jain Education Internat३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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