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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-४, वारितोऽपि तद्वतंन त्यक्तवान् । तदा कन्या अब्रुवत' देवास्मिन् भवेऽयमेव भर्ता, नान्य इत्यस्माकं प्रतिज्ञेति अमित मत्यनन्तमत्यार्थिकाभ्यासे प्रियदत्तां विनान्या दीक्षिताः । राजादयस्तासां वन्दनादिकं कृत्वा पुरं प्रविविशुः । कुवेरकान्तप्रियदत्तयोर्विवाहोऽभूत् । पूर्वभवमुनिदानफलेन तदुद्यानवृक्षाः सर्वेऽपि कल्पवृक्षा वभूवुः, गृहे नव निधानानि च । तन्नाद्भुतम् धर्मफलेन विभूतय इति । एवं कुबेरकान्तः सुखेन तस्थौ । प्रजापालः किंचिद्वैराग्य हेतुमवाप्य लोकपालं स्वपदे निधाय श्रेष्ठिनः समर्प्य दशसहस्रक्षत्रियादिभिरमितगतिचारणान्तिके दीक्षितो मुक्तिमवाप । इतः श्रेष्ठी लोकपालस्य यथेष्टं प्रवर्तितुं न प्रयच्छतीति सर्वेषां यूनां मन्त्रिणां तस्योपरि द्वेषो बभूव । तै राज्ञः पुटपुटिकां या ददाति' बकुलमाला विलासिनी सा विशिष्टभूषणादिकं दत्त्वा प्रार्थिता- ईषन्निद्रावस्थायां राजा यथा शृणोति तथा त्वं बभाण 'श्रेष्ठी वयोवृद्धो गुणाधिकस्तं त्वसिहासनाध उपवेशितुमनुचितम्' इति । तया प्रस्तावं ज्ञात्वा तथा भणिते राज्ञा स्वप्नमेव मत्वा प्रातरागतः श्रेष्ठ भणितो यदाहमाह्वयामि तदागच्छेति । ततः कुबेरमित्रः स्वगृह एव स्थितः । इतो राजा २८८ जिस किसी भी कुमारको दे दीजिये । इसपर राजाने कहा कि इस पुण्यमूर्तिके एकपत्नीव्रत का कोई कारण नहीं है । इसीलिये उसने अनेक प्रकारसे कुबेरकान्तको उक्त एकपत्नीव्रत से विमुख करनेका प्रयत्न किया, परन्तु उसने उस व्रतको नहीं छोड़ा। तब उन कन्याओंने कहा कि हे देव ! इस भवमें हमारा पति यही है, और दूसरा कोई नहीं; यह हम लोगोंकी प्रतिज्ञा है । ऐसा कहते हुए उनमेंसे एक प्रियदत्ताको छोड़कर शेष सबने अमितमती और अनन्तमती आर्यिकाओं के समीपमें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । तब राजा आदि उन सबकी बन्दना आदि करके नगर में प्रविष्ट हुए । इस प्रकार कुबेरकान्त और प्रियदत्ताका विवाह हो गया । पूर्व भवमें मुनिराज के लिये दिये गये उस दानके प्रभावसे उसके उद्यानके सब ही वृक्ष कल्पवृक्ष हो गये तथा घरमें नौ निधियाँ भी प्रादुर्भूत हुई । सो यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि, धर्म के फलसे अनेक प्रकारकी विभूतियाँ हुआ ही करतीं हैं। इस प्रकारसे वह कुबेरकान्त सुखसे स्थित हुआ । प्रजापाल राजाने किसी वैराग्यके निमित्तको पाकर लोकपालको अपने पदके ऊपर प्रतिष्ठित कर दिया और उसे सेठको समर्पित करते हुए दस हजार क्षत्रियों (राजाओं) आदि के साथ अमितगति चारण मुनिराजके पासमें दीक्षा ले ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ । इधर कुबेरमित्र सेठ लोकपालको इच्छानुसार नहीं प्रवर्तने देता था, इसलिए सच युवक मन्त्रियोंका सेठ के ऊपर द्वेषभाव हो गया । तब उन सबने जो बकुलमाला नामकी वेश्या राजाके लिए पुटपुटिका (?) दिया करती थी उसको विशिष्ट भूषण आदि देकर कहा कि रातमें जब राजा कुछ निद्रित अवस्था में हो तब तुम जिस प्रकारसे वह सुन सके उस प्रकारसे यह कहना कि सेठ तुमसे अवस्था में वृद्ध और गुणोंमें अधिक है, इसलिए उसको अपने सिंहासनके नीचे बैठाना योग्य नहीं है । तदनुसार उसने प्रस्तावको जानकर उसी प्रकार से कह दिया । राजाने इसे स्वप्न ही माना । प्रातः काल होनेपर जब सेठ आया तब राजाने उससे कहा कि जब मैं आपको बुलाऊँ तब आया कीजिये । तब उसके कथनानुसार सेठ कुबेरमित्र अपने घरपर ही रहने लगा । इधर राजा १. ब अश्रुता । २. श भवर्यम भर्त्ता । ३. श कुबेरकान्तः एवं । ५. ज वयोवृद्धो । ६. व सिंहासना अथ उप । I Jain Education International ४५ : For Private & Personal Use Only ४. ब पटुपुटिकायां ददाति । www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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