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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ १-४ : प्रतिविद्यावाणैर्विनिर्जितवानुक्तवांश्चे - अद्यापि मम सेवां कृत्वा सुखेन तिष्ठथेति । ततो वरवस्तूपायनेन शरणं प्रविष्टाः । तदनु जगदाश्चर्यविभूत्या समस्तैः सार्धं पुरं प्रविष्टः सुमुहूर्ते कन्यां परिणीतवांश्च । कियन्ति दिनानि तत्र स्थितो मातापित्रोर्दर्शनोत्कण्ठितोऽभूत् । ततो वियश्वरराजैः श्वशुरेण वनितया मित्रेण च विमानमारुह्य नभोऽङ्गणं व्याप्य स्वपुरतदागमं ज्ञात्वा पिता सपरिवारः सन्मुखं ययौ, तं दृष्ट्वा सुखी बभूव । पुरं प्रविश्य मातरं प्रणम्यागतवियच्चराणां प्राघूर्णक्रियां विधाय कतिपयदिनैस्तान् विस सुखेन स्थितः । मागतः एकदा घनवाहनमञ्जूषाभ्यां मेरुं गत्वा तत्रत्यजिनालयान् पूजयित्वा एकस्मिन् जिना - ये यावतिष्ठति तावद् गगनेऽमितगति-जितारिनामानौ चारणाववतीर्णौ । तो वन्दित्वोपविश्य धर्मश्रुतेरनन्तरं पृष्टवान् मम पुण्यातिशयहेतुं मेघवाहनमदनमञ्जषयोरुपरि मोहस्य च कथयेति । कथयति यतिनाथस्तथाहि — अत्रैव भरते आर्यखण्डस्थमृणालनगर्या शंभवनाथतीर्थान्तरे राजाजनि जितारिर्देवी कनकमाला पुरोहितः श्रुतकीर्तिस्तद्ब्राह्मणी बन्धुमती पुत्री प्रभावती । सा राजतनया च जैनपण्डितासमीपे पठिता । एकदा बन्धुमत्या सह सं पुरोहितः स्ववासक्रीडाभवनं क्रीडितुं गतः । क्रीडावसाने निद्रिता सा । भ्रमितुं गतः । बन्धुमती शरीरगत सौरभासक्तागतेन सर्पेण दष्टा मृता । सा तेनागत्यालपिता यदा न वक्ति तदा ८ प्रतिपक्षभूत विद्याबाणोंसे जीतकर रत्नशेखर बोला कि तुम लोग अब भी मेरी सेवा करके सुखपूर्वक रह सकते हो। तब वे विद्याधर उत्तम वस्तुओं को भेंट करके रत्नशेखर के शरण में जा पहुँचे । तत्पश्चात् वह जगत्को आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिको लेकर सबके साथ नगर में प्रविष्ट हुआ। उसने शुभ मुहूर्तमें मदनमंजूषा के साथ विवाह कर लिया । फिर कुछ दिन वहाँ रहकर उसे अपने मातापिताके दर्शन की उत्कण्ठा हुई । तब वह विद्याधर राजाओं, ससुर, पत्नी और मित्र के साथ विमान में बैठकर आकाशको व्याप्त करता हुआ अपने पुरमें आ गया। उसके आगमनको जानकर पिता परिवार के साथ सन्मुख आया और उसको देखकर सुखी हुआ । रत्नशेखरने पुरमें प्रवेश करके माताको प्रणाम किया । तत्पश्चात् साथ में आये हुए विद्याधरोंका अतिथिसत्कार करके उसने कुछ दिनों में उन्हें वापिस कर दिया। इस प्रकार वह सुखसे स्थित होकर कालको बिताने लगा । एक समय उसने मेघवाहन और मदनमंजूषाके साथ मेरु पर्वत के ऊपर जाकर वहाँ के जिनालयोंकी पूजा की। पश्चात् वह किसी एक जिनालय में बैठा ही था कि इतने में आकाशसे अमितगति और जितारि नामक दो चारण ऋषि अवतीर्ण हुए । उनकी वन्दना करके उसने धर्मश्रवण किया और फिर उनसे अपने पुण्यातिशय तथा मेघवाहन व मदनमंजूषा विषयक मोहके कारणके कहने की प्रार्थना की। मुनिराजने उसका निरूपण इस प्रकारसे किया - इसी भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्डमें स्थित मृणाल नगरीमें शम्भवनाथ तीर्थंकरके तीर्थंकाल में जितारि राजा हुआ है । उस पत्नीका नाम कनकमाला था । इस राजाके श्रुतकीर्ति नामका पुरोहित था जिसके बन्धुमती नामकी ब्राह्मणी (पत्नी) और प्रभावती नामकी पुत्री थी । वह पुरोहितपुत्री और राजपुत्री दोनों ही एक जैन पण्डिता के समीपमें पढ़ी थीं। एक दिन वह पुरोहित बन्धुमती के साथ क्रीड़ा करने के लिये अपने निवासस्थान के क्रीड़ाभवनमें गया था । वहाँ वह क्रीड़ाके अन्तमें सो गई थी । पुरोहित घूमने के लिये बाहर निकल गया था । बन्धुमतीके शरीर में स्थित सुगन्धिके कारण वहाँ एक सर्प आया और १. ब ० वानुक्तांश्च, श ०श्वानुक्तवान्श्च । २. फ 'स' नास्ति । ३. फ स्ववनक्रीडा० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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