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________________ : १-४] १. पूजाफलम ४ गतो तं दृष्टातिविह्वलीबभूव । तद् वृत्तान्तमाकर्ण्य तत्पित्रा तत्रागत्य मित्रेण सार्धं स्वगृहमानीतः। तत्रत्याशेषविद्याधरकुमारभयेन तत्स्वयंवरः कृतः। तया तस्य माला निक्षिप्ता । तदा सर्वे वियच्चराः क्रुद्धाः स्वमन्त्रिवचनमुल्लङ घ्य कदनोद्यता जाताः। तथापि मन्त्रिवचनेन संधानाय तन्निकटमजितनामानं दतं प्रेषयामासः। स गत्वा रत्नशेखरं विज्ञप्तवानहे भूमिप, धूमशेखरप्रभृतिखेचरराजैस्तवान्तिकं प्रस्थापितोऽहम्। ते सर्वेऽपि त्वयि स्निह्यन्ति वदन्ति च खेचरेन्द्रकन्यामस्माकं समर्प्य रत्नशेखरः सुखेनास्तामिति । तस्मात् कन्यां तेषां समर्पयेति श्रुत्वा मेघवाहनमुखमवलोक्योक्तवान्– अनया धिया तवेश्वराणां शिरांसि कबन्धेषु न तिष्ठन्ति । याहि, रणाङ्गणे स्थातुं तेषां निरूपयेति विसर्जितो दूतः । तस्मात्ते सर्वमवधार्य रणावनौ स्थिताः। तेषां स्थितिं विलोक्य रत्नशेखरमेघवाहनौ विद्यया चातुरङ्गं विधाय विद्युद्वेगेन सार्धमाजिरङ्गे स्थितौ । खेचरै त्यवर्गों योद्धं निरूपितो रत्नशेखरेणापि। ततो यथोचितं भृत्यवर्गौ युद्धं चक्रतुः। बृहद्वेलायां खेचरपदातिर्नष्टा, तथाश्वारोहा रथिका योधाश्च । स्वसैन्यभङ्गवीक्षणात् क्रुद्धैर्वियञ्चरैर्मुख्यैः समस्तैर्वेष्टितो रत्नशेखरः । ततो निजहस्तस्थितकोदण्डविसर्जितबाणमुख्यैर्बहून् जघान । ततोऽनेकविद्याबाणा विसर्जितास्तैः। तान् मंजूषा अपनी विलासिनियों ( सखियों ) के साथ जिनदर्शनके लिये आई। वह उसको देखकर अतिशय विह्वल ( कामपीड़ित ) हो गई। उस वृत्तान्तको सुनकर उसका पिता वहाँ आया और मित्रके साथ उसे ( रत्नशेखरको) अपने घरपर ले गया। उसने वहाँ रहनेवाले समस्त विद्याधर कुमारोंके भयसे उसका स्वयंवर किया । मदनमंजूषाने रत्नशेखरके गलेमें माला डाल दी । तब सब विद्याधर ऋद्ध होते हुए अपने मन्त्रियों के वचनका उल्लंघन करके युद्धके लिये तत्पर हो गये। फिर भी उन लोगोंने मंत्रियोंके कहनेसे सन्धिके निमित्त रत्नशेखरके पास अजित नामक दूतको भेज दिया । उसने जाकर रत्नशेखरसे निवेदन किया कि हे राजन् ! धूमशेखर आदि विद्याधर राजाओंने मुझे आपके पासमें भेजा है। वे सब ही आपसे स्नेहपूर्वक कहते हैं कि विद्याधरकन्याको हमें । देकर रत्नशेखर सुखपूर्वक रहे । इसलिये आप उन्हें कन्याको दे दें। इस बातको सुनकर मेघवाहनके मुखकी ओर देखते हुए रत्नशेखरने उससे कहा कि इस दुर्बुद्धिसे तुम्हारे स्वामियों के शिर धड़ोंमें रहनेवाले नहीं हैं। जाओ और उनसे रणाङ्गणमें स्थित होनेके लिये कह दो। इस प्रकार कहकर रत्नशेखरने दूतको वापिस कर दिया। दूतसे वे इस सबको सुन करके युद्धभूमिमें उपस्थित हो गये । उनको युद्धभूमिमें स्थित देखकर रत्नशेखर और मेघवाहन विद्याके बलसे चतुरंग सेनाको निर्मित करके विद्वेगके साथ युद्धभूमिमें आ डटे। विद्याधरोंने भृत्यवर्गको (सेनाको) युद्धके लिये आज्ञा दी। तब रत्नशेखरने भी अपने भृत्यवर्गको युद्ध करनेकी आज्ञा दी। तब यथायोग्य दोनों ओरका भृत्यसमूह युद्ध करने लगा। इस प्रकार बहुत कालके बीतनेपर विद्याधरोंकी सेना ( पदाति ) नष्ट हो गई तथा अश्वारोही व रथारोही सुभट भी नष्ट हो गये। अपनी सेनाको नष्ट होते देखकर क्रोधको प्राप्त हुए मुख्य समस्त विद्याधरोंने रत्नशेखरको वेष्टित कर लिया। तब उसने अपने हाथमें स्थित धनुषसे मुख्य बाणोंको छोड़कर बहुत-से विद्याधरोंको प्राणरहित कर दिया। इससे उन विद्याधरोंने रत्नशेखरके ऊपर अनेक विद्याबाण छोड़े। उनको १. ब दृष्टुमागता। २. प धूमशिख, श धूमशिखर । ३. श ०वर्गे योद्धं निरूपितो। ४. शब भृत्यवर्गो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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