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________________ : ६-२, ४३] ६.दानफलम् २ २५१ दानमदाताम् पञ्चाश्चर्याणि लेभाते । तदा तदरण्यवासिनो व्याघ्र-वराह-वानर-नकुलाः समागत्य मुनी नत्वा समीपे तस्थुः । वनजङ्घः तौ नत्वा पप्रच्छ - एते मे मन्त्रि-पुरोहित-सेनापतिराजश्रेष्ठिनः क्रमेण मतिवरानन्दाकम्पन-धनमित्रनामानः । एतेषामुपरि स्नेहस्य कारणं किमेतेषां व्याघ्रादीनां गतेरुपशमस्य च हेतुः कः, भवतोरुपरि मे मोहकारणं किम्, इत्युक्ते दमधर आह जम्बूद्वीपपूर्वविदेहवत्सकावतीविषये प्रभाकरीपुर्या राजातिगृध्रो महालोभी स्वनगरनिकटस्थाद्रौ बहुद्रव्यं दध्र, रौद्रध्यानेन मृत्वा पङ्कप्रभां गतः, ततः आगत्य तन्नगे व्याघ्रोऽभूत् । तदा तत्पुरे प्रीतिवर्धनो राजा प्रत्यन्तवासिनामुपरि गच्छन् पुरबाह्ये विमुच्य स्थितः। तदा तत्पुरबाह्ये मासोपवासी पिहितास्रवमुनिवृक्षकोटरे तस्थौ। तत्पारणाहे तं राजानं कश्चिन्नैमित्तको विज्ञप्तवान्-देव, यद्ययं मुनिस्तव गृहे पारणां करिष्यति तव महानर्थलाभो भविष्यति। ततो राजा नगरमार्ग कर्दमं कृत्वोपरि षुष्पाणि विकारितवान् । मुनिगरं प्रवेष्टुं नायातीति तच्छिबिरे चाँ प्रविष्टः । राजा तं व्यवस्थाप्य नैरन्तर्यानन्तरं पञ्चाश्चर्याणि प्राप्तवान्। तदा मुनिर्बभाषेऽस्मिन् नगे बहुद्रव्यं रक्षन् व्याघ्र आस्ते । स आये। तब श्रीमती और वज्रजंघने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। इससे वहाँ पञ्चाश्चर्य हुए । उस समय उस वनमें निवास करनेवाले व्याघ्र, शूकर, बन्दर और नेवला ये चार पशु आये और उन दोनों मुनियोंको नमस्कार कर उनके समीपमें बैठ गये । पश्चात् वज्रजंघने मुनियोंको नमस्कार करके पूछा कि मतिवर, आनन्द, अकम्पन और धनमित्र नामके जो ये मेरे मन्त्री, पुरोहित, सेनापति और राजसेठ हैं इनके ऊपर मेरे स्नेहका कारण क्या है; इन व्याघ्र आदिकों के क्रूरताको छोड़कर शान्त हो जानेका कारण क्या है; तथा आप दोनोंके ऊपर मेरे अनुरागका भी कारण क्या है ? इन प्रश्नोंका उत्तर देते हुए दमवर मुनि बोले जम्बद्वीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशके भीतर प्रभाकरी नामकी एक नगरी है । वहाँका राजा अतिगृद्ध बहुत लोभी था । उसने अपने नगरके समीपमें स्थित एक पर्वतके ऊपर बहुत-सा द्रव्य गाड़ रक्खा था । वह रौद्र ध्यानसे मरकर पङ्कप्रभा पृथिवी (चौथे नरक) में गया । फिर वह वहाँसे निकलकर उसी पर्वतके ऊपर व्याघ्र हुआ। उस समय उस नगरका राजा प्रीतिवधेन अनाये देशवासियों ( शत्रुओं) के ऊपर आक्रमण करनेके लिए जा रहा था। वह नगरके बाहिर पड़ाव डालकर स्थित हुआ। उस समय एक मासका उपवास करनेवाले पिहितास्रव मुनि उस नगरके बाहिर एक वृक्षके खोतेमें स्थित थे। जब उनका उपवास पूरा होकर पारणाका दिन उपस्थित हुआ तब किसी ज्योतिषीने आकर उस राजासे प्रार्थना की कि हे राजन् ! यदि ये मुनि आपके घरपर पारणा करेंगे तो आपको महान् धनका लाभ होगा। यह ज्ञात करके प्रीतिवर्धनने नगस्के मार्गम कीचड़ कराकर उसके ऊपर फूलोंको बिखरवा दिया। उक्त कीचड़ और फूलोंके कारण मुनिका नगरके भीतर जाना असम्भव हो गया था, अतएव वे प्रीतिवर्धन राजाके डेरेपर चर्याके लिए आ पहुँचे, राजाने उन्हें निरन्तराय आहार दिया। आहार हो जानेके पश्चात् उसके डेरेपर पञ्चाश्चर्य हुए । उस समय मुनि पिहितास्रवने कहा कि इस पर्वतके ऊपर बहुत-सा द्रव्य है। उसकी रक्षा व्याघ्र कर १.प लेभे फ श लेभेते । २. ज पब श विषय । ३. ज महाबलोभी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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