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________________ २१२ पुण्यानवकथाकोशम् [५-४,३७ : कीर्तिमाकर्ण्य से नीतस्तस्य दर्शनात्स कवाट उद्जघटे 'तां परिणीय तत्रानेकविद्याः साधयित्वा तां तत्रैव निधाय वीतशोकपुरमागच्छन् अार्यखण्डस्थमञ्जनगिरिपुरमवाप। तत्र राजा प्रभञ्जनः, कान्ता नीलाञ्जना, पुत्र्यो मदनलताविद्युल्लतासुवर्णलताविद्युत्प्रभामदनवेगाजयावतीसुकान्ताश्चेति सप्त उद्यानवनात्पुरं प्रविशन्त्यस्युटितबन्धनं मारयितुमागतं हस्तिनं वीक्ष्य नष्टे परिजने हाहा-नादं चक्रिरे । तन्नादं श्रुत्वार्क कीर्तिगजं बवन्ध, ता अवृणीत । ततो वीतशोकपुरं गत्वा मित्रादीनां मिलितः । ततः स्वपुरं गत्वादृश्यवेषेण स्थित्वा राजकीयमण्डपस्थपूगीफलान्यजालेण्डिकाः, पत्राण्यर्कपत्राणि, मृगनाभिकाश्मीरजादिकं गृथम् , स्त्रीणां श्मश्रुकूर्चान् , पुरुषाणां कुचान् , हस्तिनः शूकरानश्वान गर्दभान् , पानीयं गोमूत्रम् , वह्नि शीतलमित्यादि नानाविनोदास्तत्र विधाय राजादीनां कौतुकमुत्पादयांचकार । ततोऽन्येद्युभिल्लो भूत्वा पुरजीवधनं गृहीत्वा ययौ ।गोपालकोलाहलाद्राशा प्रेषितं बलं मायया पातितवान् । श्रुत्वा कोपेन राजास्वयं निर्जगाम, तेन महायुद्धं चकार । तदा मेघसेनोऽकथयत्ते पुत्रोऽयमर्ककीर्तिरिति श्रुत्वा विमलकीर्ति हर्ष स्वमूर्त्यानत नन्दनमालिलिङ्ग। महाविभूत्या पुरं प्रविष्टौ । रविकीर्तिः प्राक्परिणीताः स्त्रियः आनीय सुखेन तस्थौ । उसके दर्शनसे वह द्वार खुल गया । इसलिए अर्ककीर्तिने उस वीतशोकाके साथ विवाह कर लिया। पश्चात् उसने वहाँ अनेक विद्याओंको सिद्ध किया। फिर वह वीतशोकाको वहींपर छोड़कर वीतशोकपुर आते हुए आर्यखण्डस्थ अंजनगिरिपुरको प्राप्त हुआ। वहाँके राजाका नाम प्रभंजन और रानीका नाम नीलांजना था । इनके मदनलता, विद्युल्लता, सुवर्णलता, विद्युत्प्रभा, मदनवेगा, जयावती और सुकान्ता नामकी सात पुत्रियाँ थीं। एक समय वे उद्यान-वनसे आकर नगरमें प्रवेश कर ही रही थीं कि इतनेमें एक हाथी बन्धनको तोड़ कर उनकी ओर मारनेके लिए आया । उसे देखकर सेवक आदि सब भाग गये। तब वे हा-हाकार करने लगीं। उनके आक्रन्दनको सुनकर अर्ककीर्तिने उस हाथीको बाँध लिया और उन कन्याओंके साथ विवाह कर लिया। तत्पश्चात् वह वीतशोकपुरमें जाकर मित्रादिकोंसे मिला । फिर उसने अपने नगर ( पुण्डरीकिणी ) में जाकर और गुप्तरूपमें स्थित रहकर राजाके मण्डप या हडप्पमें स्थित सुपाड़ी फलोंको बकरीकी लेंडी, पानोंको अकौवाके पत्ते, कस्तूरी एवं केसर आदिको विष्ठा, स्त्रियों के दाढ़ी-मूंछ, पुरुषोंके स्तन, हाथियोंको शूकर, घोड़ोंको गधे, पानीको गोमूत्र और अग्मिको शीतल बनाकर अनेक प्रकारके विनोद कार्य किये। इनको देखकर राजा आदिको बहुत आश्चर्य हुआ। तःपश्चात् दूसरे दिन उसने भीलके वेषमें नगरके जीवधन ( पशुधन ) का अपहरण कर लिया। तब ग्वालों के कोलाहलसे इस समाचारको जानकर उसके प्रतीकारके लिए राजाने जो सेना भेजी थी उसको अर्ककीर्तिने मायासे नष्ट कर दिया। इसपर राजाको बहुत क्रोध आया। तब उसने स्वयं जाकर उसके साथ घोर युद्ध किया । पश्चात् मेघसेनने राजाको बतलाया कि यह तुम्हारा पुत्र अर्ककीति है। इस बातको सुनकर राजा विमलकीर्तिको बहुत हर्ष हुआ। तब उसने शरीरसे नम्रीभूत हुए अपने उस पुत्रका आलिंगन किया। फिर वे दोनों महाविभूतिके साथ नगरमें प्रविष्ट हुए । इसके पश्चात् अर्ककीर्ति अपनी पूर्वविवाहित पत्नियोंको ले आया और सुखसे रहने लगा। १. ब तत्कन्या सार्ककीत्तिः। २. श 'स' नास्ति। ३. ज कवाटोद्घटि शकबाटोघटे । ४. श आर्याखण्ड । ५. ज पब राजकीयहडपस्थ । ६. ज प नंत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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