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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ २११ मेघसेनो राजात्मजमवदत्-हे मित्र, त्वां मित्रं प्राप्यापि ममेयं न स्याच्चेत् किं ते मित्रत्वेन । ततस्तदर्थ रविकीर्तिहठात्तामहरत् । वणिजामाकोशवशेन पुत्रं सुमित्रं' निःसारयामास विमलकीर्तिः । अर्ककीर्तिर्वीतशोकपुरमगात् । तत्र राजा विमलवाहनो देवी सुप्रभा तत्पुग्यो जयावतो वसुकान्ता सुवर्णमाला सुभद्रा सुमतिः सुव्रता सुनन्दा विमलाश्चेत्यष्टौ । तत्पित्रा पूर्वमवधिशानिनः पृष्टा मत्पुत्रीणां को वरो भवेदिति । तैरवादि यश्चन्द्रकवेध्यं विध्यति स भवेत् । ततस्तेन स्वयंवरमण्डपः कृतः, चन्द्रकवेध्यं च स्थापितम् ,राजन्य कंचमिलितम् । न च केनापि तद्विद्धम् । अर्ककीर्तिर्विव्याध, ताः परिणीय सुखेन तस्थौ।। ___एकदा विमलनगं निर्वाणभूमिवन्दनार्थ राजादयो जग्मुः । तत्र यत्कर्तव्यं तत्कृत्वा रात्री तत्रैव सुप्ताः । तत्रार्ककीति चित्रलेखा विद्याधरी निनाय, सिद्धकूटाग्रेऽस्थापयत् । तं किमिति निनायेत्युक्ते तत्र विजयाधं उत्तरश्रेण्यौ मेघपुरेशवायुवेग-गगननवल्लभयोस्तनुजावीतशोका। एकदा मन्दिरं गतेन तत्पित्रा दिव्यज्ञानिनः पृष्टा मत्पुच्या वरः कः स्यात् । यद्दर्शनात् सिद्धकूटकवाट उद्घटिष्यति सस्यादिति उक्त तथाविधः खेचरस्तत्र कोऽपि नास्तीति तत्कन्यासख्यार्क मेघसेनने वेदीके ऊपर गुणवतीको देखकर राजपुत्र ( अर्ककीर्ति ) से कहा कि हे मित्र ! तुम जैसे मित्रको पा करके भी यदि मुझे यह कन्या नहीं प्राप्त हो सकी तो तुम्हारी मित्रतासे क्या लाभ हुआ ? यह सुनकर अर्ककीर्तिने मेघसेनके लिए उस कन्याका अपहरण कर लिया। तब वैश्योंके चिल्लानेपर विमलकीर्तिने उस मित्रके साथ अपने पुत्र अर्ककीर्तिको भी निकाल दिया । इस प्रकार वह अर्ककीर्ति वीतशोकपुरको चला गया। वहाँ विमलवाहन राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सुप्रभा था। उनके जयावती, वसुकान्ता, सुवर्णमाला, सुभद्रा, सुमति, सुव्रता, सुनन्दा और विमला नामकी आठ पुत्रियाँ थीं । इनके पिताने पहिले अवधिज्ञानी मुनियों से पूछा था कि मेरी इन पुत्रियोंका वर कौन होगा। उत्तरमें उन्होंने बतलाया था कि जो चन्द्रक वेध्यको वेध सकेगा वह तुम्हारी इन पुत्रियोंका पति होवेगा। इसपर राजाने स्वयंवरमण्डपको बनवाकर चन्द्रकवेध्यको भी स्थापित कराया। इससे स्वयंवरमण्डपमें राजाओंका समूह जमा हो गया। परन्तु उसमें से उस चन्द्रक वेध्यको कोई भी नहीं वेध सका । अन्तमें अर्ककीर्तिने उसको वेधकर उन पुत्रियोंके साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार वह सुखपूर्वक कालयापन करने लगा। __एक समय राजा आदि निर्वाण क्षेत्रकी वन्दना करनेके लिए विमल पर्वतपर गये। वहाँ आवश्यक जिनपूजनादि कार्योंको करके वे रातमें वहींपर सो गये। उनमेंसे अर्ककीर्तिको चित्रलेखा विद्याधरीने ले जाकर सिद्धकूटके शिखर पर स्थापित किया। उसको वहाँ ले जानेका कारण निम्न प्रकार है- वहाँ विजयार्ध पर्वतके ऊपर उत्तर श्रेणीमें मेघपुर नामका एक नगर है । वहाँ वायुवेग नामक राजा राज्य करता था। रानीका नाम गगनवल्लभा था। इनके एक वीतशोका नामकी पुत्री थी। एक दिन उसके पिताने मन्दर पर्वतपर जाकर किसी दिव्यज्ञानीसे पूछा था कि मेरी पुत्रीका वर कौन होगा। उत्तरमें उक्त दिव्यज्ञानीने यह बतलाया था कि जिसके दर्शनसे सिद्धकूट चैत्यालयका द्वार खुल जावेगा वह तुम्हारी पुत्रीका वर होगा। परन्तु वहाँ इस प्रकारका कोई भी विद्याधर नहीं था। इसीलिए उक्त कन्याकी सखी अर्ककीर्तिको सुनकर उसे वहाँ ले गई। १. फश सुमित्र। २. ब सुमति । ३. प विध्यति । ४. फ °विव्याध तां ब विवाध्यताः श विवुध तां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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