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________________ :५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १ १७७ पित्रा एकदा स्वोद्याने स्थितः पिहितास्रवो मुनिः पृष्टो मत्सुतौ कोटीभटौ स्वतन्त्रं राज्यं करिष्यतोऽन्यं सेवित्वा वा । मुनिरुवाच-यः सोमप्रभं पुण्डवर्धनानिर्धाटय वनराजाय राज्यं दास्यति स तयोः प्रभुरिति श्रुत्वा ताभ्यां राज्यं दत्त्वा निःकान्तः सुगतिमियाय । तौ सोमप्रभमुनि वन्दितुमागतौ । तद्वृत्तं विबुध्य मन्त्रिणं राज्ये नियुज्य स्वस्वामिनं द्रष्टुं पुण्डवर्धनमीयतुः । तं ददृशतु त्यो बभूवतुः । ___ अन्यदा लक्ष्मीमतीं तत्रैव निधाय स्वयं व्यालादिभिर्गत्वा जालान्तिकवनं प्राप्य न्यग्रोधच्छायायामुपविष्टस्तत्रत्यविषाम्रवृक्षफलानि तत्परिवारस्य तत्पुण्येनामृतरूपेण परिणतानि'। तदा पञ्चशतसहस्रभटास्तं नेमुर्विज्ञापयांचक्रुः देवास्माभिरेकदावधिज्ञानी मुनिः पृष्टो वयं के सेवामहे इति । तेनोक्तं जालान्तिकवने विषाम्रफलान्यमृतरसं यस्य दास्यन्ति तं सेविष्यध्वे' इत्युक्ते वयमत्र स्थिताः। मुनिनोक्तो यः, स त्वमेवेति त्वत्सेवका वयमिति । ततः कुमारेण सन्मानदानेन तोषिताः। ततोऽन्तरपुरं जगाम । तत्पतिसिंहरथेन विभूत्या पुरं प्रवेशितः। तत्र सुखेन यावत्तिष्ठति तावर्तिसहरथेन विज्ञप्तः देव, सुराष्ट्र गिरिनगरेशहरिवर्ममृगलोचनयो पूछा कि मेरे दोनों पुत्र, जो.कि कोटिभट हैं, स्वतन्त्र रहकर राज्य करेंगे अथवा किसी दूसरेको सेवा करके ? मुनिराज बोले कि जो महापुरुष सोमप्रभको पुण्डवर्धन नगरसे निकालकर वनराजके लिए राज्य दिलावेगा वह इन दोनोंका स्वामी होगा। यह सुनकर राजा जयवर्माको वैराग्य उत्पन्न हुआ, अतः उसने उन दोनों पुत्रोंको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। वे दोनों ( अच्छेद्य व अभेद्य ) उस समय सोमप्रभ मुनिकी वन्दनाके लिए उद्यानमें आये थे। जब उन्हें सोमप्रभका उपर्युक्त वृत्तान्त ज्ञात हुआ तब वे दोनों मंत्रीको राज्यकार्यमें नियुक्त करके अपने स्वामीका दर्शन करनेके लिए पुण्डवर्धनपुरको गये और वहाँ नागकुमारको देखकर उसके सेवक हो गये। दूसरे समय नागकुमार लक्ष्मीमतिको वहींपर छोड़कर च स्वयं व्यालादिकोंके साथ जाकर जालान्तिक नामक वनमें पहुँचा । वहाँ वह वटवृक्षकी छायामें बैठ गया । तब उसके पुण्यके प्रभावसे उक्त वनके विषमय आम्रवृक्ष के फल उसके परिवारके लिए अमृत स्वरूपसे परिणत हो गये। उस समय पाँचसौ सहस्रभटोंने भाकर नागकुमारको नमस्कार करते हुए उससे निवेदन किया कि हे देव ! एक समय हम सबने किसी अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था कि हम लोग किसकी सेवा करेंगे? उसका उत्तर देते हुए उन मुनिराजने कहा था कि जालान्तिक वनमें विषमय आम्रके फल जिस महापुरुषके लिए अमृतके समान रस देंगे उसकी तुम सब सेवा करोगे। मुनिराजके इन बचनोंको सुनकर हम सब तभीसे यहाँ स्थित हैं। उन मुनिराजने जिस विशिष्ट पुरुषका संकेत किया था वह तुम ही हो, इसलिए हम सब तुम्हारे सेवक हैं। तब नागकुमारने यथायोग्य सन्मान देकर उन सबको सन्तुष्ट किया। तत्पश्चात् वह अन्तरपुरको गया। वहाँका राजा सिंहस्थ उसे विभतिके साथ नगरके भीतर ले गया । वह वहाँ पहुँचकर सुखपूर्वक ठहर गया। इसी समय सिंहस्थने उससे प्रार्थना की कि हे देव ! सुराष्ट्र देशके भीतर गिरिनगर नामका एक नगर है। वहाँ हरिवर्मा नामका राजा राज्य करता है। उसकी पत्नीका नाम मृगलोचना है। इनके एक गुणवती नामकी पुत्री १. ब रूपेण तानि । २. ब 'क' नास्ति । ३. फ सेविष्यध्व । ४. श सिंहरथकेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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