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________________ :५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १ १६७ भूपः । ततः पृथ्व्या गृहमागत्य राज्ञा व गतासीत्युक्ते देवी यथावदचीकथत् । ततोऽग्रमहिष्याः क्षुद्रत्वभयेन प्रिये, पुत्रस्य बहिनिर्गन्तुं न ददस्वेति तद्भ्रमणं निवार्यात्मगृहं जगाम भूपः । देवी श्रीधरमेव प्रकाशितं भूपोऽभिलषतीति विपरीतधिया दुःखिनी बभूव । क्वापि गत्वागतन नन्दनेनाम्बिका चिन्ताकारणं पृष्टा । तयोक्तं राशा ते बहिर्निर्गमनं निषिद्धमिति दुःखिताहं जातेति । तदनु नागकुमारो नीलगिरि विभूष्य तत्स्कन्धमारुरोहाखण्डललीलयानेकजनवेष्टितो गृहान्निर्जगाम । पुरे स्वरूपातिशयेन स्त्रीजनं मोहयन भ्रमितु लग्नः । तत्पश्चमहाशब्दकोलाहलमाकर्ण्य राजा किं कोलाहल इति कमपि पप्रच्छ। स उवाच नागकुमारभ्रमणाडम्बर इति श्रुत्वा मदाशोल्लङ्घनं कृतवतीति कोपेन राजा तस्याः सर्वस्वहरणं चकार । आगतः कुमारो निरलंकारां मातरमीक्षांचक्र स्वरूपं च बुबुधे । तदनु घृतस्थानमाट । मन्त्रिमुकुटबद्धादीनां सर्वस्वं जूते जिगाय जननीगृहमानिनाय च । स्वसभायां निराभरणान् तान् ददर्श राजा। किमित्येवं यूयमिति पप्रच्छ । तैः स्वरूपे कथिते कोपेनाहं तं जेष्यामीति सुतमाहूय मया द्यतं रमस्वेत्युक्तवान् । सुतोऽब्रवीन्नोचितं नृपस्य । द्यूते जितमन्त्र्यादेश्चापृथ्वीने यथार्थ बात कह दी। राजाने पट्टरानीकी क्षुद्रताके भयसे पृथ्वीसे कहा कि हे प्रिये ! पुत्रको बाहर न निकलने दो। इस प्रकार वह नागकुमारके घूमने फिरनेपर प्रतिबन्ध लगाकर अपने भवनमें चला गया। इससे पृथ्वीको यह भ्रम उत्पन्न हुआ कि राजा श्रीधरको ही प्रकाशमें लाना चाहता है। इस कारणसे वह बहुत दुखी हुई। उस समय नागकुमार कहीं बाहर गया था । उसने भवनमें आकर जब माताको खेदखिन्न देखा तो उससे चिन्ताका कारण पूछा। तब पृथ्वीने कहा राजाने तुम्हारे बाहर जाने-आनेको रोक दिया है, इससे मैं दुखी हूँ। यह सुनकर नागकुमार नीलगिरि हाथीको सुसज्जित कर उसके कन्धेपर चढ़ा और अनेक जनोंसे वेष्टित होकर इन्द्रके समान ठाटबाटके साथ भवनसे बाहर निकल पड़ा। वह अपने सुन्दर रूपसे स्त्रीजनोंको मोहित करता हुआ नगरमें घूमने फिरने लगा । तब उसके पाँच (शंख, काहल एवं तुरई आदि के ) महाशब्दोंके कोलाहलको सुनकर राजाने किसीसे पूछा कि यह किसका कोलाहल है ? उसने उत्तर दिया कि यह नागकुमारके परिश्रमणका आडम्बर है। यह सुनकर राजाको ज्ञात हुआ कि पृथ्वीने मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया है। इससे उसे बहुत क्रोध आया। तब उसने पृथ्वीके 'वस्त्राभूषणादि सब ही छीन लिये । नागकुमारने वापिस आकर जब माताको आभूषणादिसे रहित देखा तब उसने वस्तुस्थितिको जान लिया। तत्पश्चात् उसने चूतस्थान (जुआरियोंका अड्डा )में जाकर मन्त्री और मुकुटबद्ध राजा आदिके सब धनको जुएमें जीत लिया तथा उस सबको अपनी माँ के घरमें ले आया। जब राजाने अपनी सभामें उक्त मन्त्री आदि जनोंको आभरणोंसे रहित देखा तो उसने उनसे इसका कारण पूछा। तब उन सबने राजासे यथार्थ वृत्तान्त कह दिया । इससे उसे नागकुमारके ऊपर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। इस क्रोधावेशमें उसने नागकुमारको बुलाकर अपने साथ जुआ खेलने के लिये कहा । यह सुनकर नागकुमारने कहा कि राजाका (आपका ) मेरे साथ जुआ खेलना उचित नहीं है। फिर भी वह जुएमें पूर्व में जीते गये उन मन्त्री आदिके अधिक आग्रह करनेपर पिताके साथ जुआ खेलनेके लिये बाध्य हुआ। तब उसने जुएमें राजाके १. फ 'ततः' नास्ति । २. फ क्षुद्रस्वभावेन । ३. ब प्रकाशितुं । ४. फ श किमपि । ५. फश जननीमानिनाय। ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श स्वसभे । ७. ब-प्रतिपाठोश्यम् । श जूते जिते मंत्र्यादे।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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