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________________ १६६ पुण्यात्रवकथाकोशम् [५-१,३४: अन्यदा यन्त्रेण चारिं चारयन्तम् अश्वं विलोक्य तच्चारकं पप्रच्छास्येत्थं किमिति ग्रासो दीयते इति । तेनोक्तमयं दुष्टाश्वो मारयत्यासन्नवर्तिनमिति । कुमारस्तद्वन्धनानि मोचयित्वा दभ्रे । तमारुह्य ततो धावयामास । आश्रममानीय राज्ञ उक्तवान् सोऽयं दुष्टाश्वो वशीकृत इति । राज्ञोक्तं तव योग्यस्त्वमेव गृहाण । प्रसाद इति गृहीत्वा गतः । इत्यादितत्प्रसिद्धि विज्ञाय विशालनेत्रा स्वतनयं ब्रवीति स्म-हे पुत्र, दायादोऽतिप्रौढोऽभूत्तस्मात्त्वं स्वात्मनो यत्नं कुरु । ततस्तेन तन्मारणार्थ पञ्चशतसहस्रभटाः संगृहीतास्ते च तदवसरमवलोकयन्तस्तिष्ठन्ति । स न जानाति । एकदा नागकुमारः स्वभवनपश्चिमोद्यानस्थकुब्जवापिकायां सह प्रियाभ्यां जलक्रीडार्थ जगाम । तदा तदन्तिकं विलेपनादिकमादाय नियतसखोजनेन गच्छन्तीं पृथ्वीं स्वप्रासादस्योपरिभूमौ स्थितया विशालनेत्रया दृष्टोक्तं स्वनिकटस्थस्य भूपस्य देव, संकेतितस्थलं गच्छन्तीं स्वप्रियामवलोकय । श्रुत्वा तथा तां विलुलोके विस्मयं जगाम । क्व यातीत्यवलोकयन् तस्थौ । वाप्या निर्गतं मातृपादयोनमन्तं सुतं वीक्ष्य स्वागवल्लभां ततर्ज दूसरे किसी समयमें नागकुमारने किसी घोड़ेको यन्त्रसे चारा खिलाते हुए सईसको देखकर उससे पूछा कि इस घोड़ेको इस रीतिसे घास क्यों खिलाया जा रहा है ? सईसने उत्तर दिया कि यह दुष्ट घोड़ा निकटवर्ती मनुष्यके लिए मारता है, इसीलिये इसको दूरसे ही घास खिलाया जाता है । यह सुनकर नागकुमारने उसके बन्धनोंको खोलकर उसे पकड़ लिया। फिर उसने उसके ऊपर चढ़कर उसे इधर-उधर दौड़ाया। तत्पश्चात् उस घोड़ेको आश्रममें लाकर नागकुमार पितासे बोला कि यह वह दुष्ट घोड़ा है, इसे मैंने वशमें किया है । तब राजाने कहा कि यह तुम्हारे योग्य है, इसे तुम ही ले लो। तदनुसार नागकुमार इसे भी प्रसादके रूपमें लेकर चला गया । इत्यादि प्रकारसे नागकुमारकी ख्यातिको देखकर विशालनेत्रा अपने पुत्र श्रीधरसे बोली कि हे पुत्र ! राज्यका उत्तराधिकारी अतिशय प्रौढ़ ( उन्नत ) हुआ है। इसीलिये तुम अपने लिए प्रयत्न करो। यह सुनकर श्रीधरने नागकुमारको मार डालनेके लिए पाँच सौ सहस्रभटोंको एकत्रित किया । वे भी उसके वधका अवसर देखने लगे। उधर नागकुमारको इस बातका पता भी न था। ____एक समय नागकुमार अपने भवनके पश्चिम भागवर्ती उद्यानमें स्थित कुब्ज वापिकामें अपनी दोनों प्रियतमाओंके साथ जलक्रीड़ाके लिए गया था। उस समय उसकी माता पृथ्वी विलेपन आदिको लेकर नियमित सखीजनोंके साथ उसके पास जा रही थी। उसे देखकर अपने भवनके ऊपर छतपर बैठी हुई विशालनेत्रा अपने पासमें बैठे हुए राजासे बोली कि हे देव ! देखिये आपकी प्रिया संकेतित स्थान ( व्यभिचारस्थान ) को जा रही है। यह सुनकर राजाने उसे उस प्रकारसे जाते हुए देखा । इससे उसे बहुत आश्चर्य हुआ। तब वह यही देखता रहा कि पृथ्वी कहाँ जाती है। अन्तमें उसने देखा कि वह बावड़ीपर पहुँच गई और नागकुमार उस बावड़ीमेंसे निकलकर उसके चरणों में प्रणाम कर रहा है । यह देखकर उसने विशालनेत्राको बहुत फटकारा । तत्पश्चात् उसने पृथ्वीके भवनमें जाकर उससे पूछा कि तुम कहाँ गई थीं ? तब १. ब यत्नेन । २.फ 'ग्रासो' नास्ति । ३. आश्रयमानीय श आश्रमानीय। ४. ब राज्ञोक्तवान् । ५. ब कुब्जवापिकां । ६. श विप्राभ्यां । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दृष्टोक्तं । ८. ब स्थानं । ९. ब विलोकयेन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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