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________________ : ४-४, २६ ] ४. शीलफलम् ४ १४७ कुलाय कि पुत्री दीयते' इति श्रुत्वा हठाद् ग्रहीतुं वज्रजङ्घो बलेन निर्गतः । तत्पाक्षिकेन व्याघ्ररथेन कदने कृते वज्रजङ्घेन बद्धो व्याघ्ररथः । तदाकर्ण्य पृथुना स्ववर्याः सर्वे मेलिताः । अत्याश्चर्यसामग्रया स्थित इति ज्ञात्वा वज्रजङ्घन स्वपुत्रानानेतुं प्रेषित लेखादि ज्ञात्वा लवाङ्कुशौ सीतया निवारितौ श्रपि निर्गत्य पञ्चरात्रेण वज्रजङ्घस्य मिलितौ । तेन युवां किमित्यागताविति पृष्ठे द्रष्टुमागतौ । पृथुः समस्तबलेन व्यूह - प्रतिव्यूहक्रमेर्णे रणभूमौ स्थितः । लवाङ्कुशौ वज्रजङ्घनाज्ञातौ गत्वा योद्धुं लग्नौ । विलयप्रापिते पृथुबलें" पृथुना लवः स्वीकृतः । उभयोरत्यद्भुते रणे विरथीभूय नष्टुं लग्नः पृथुस्तदनु लवेनोक्तं अज्ञातकुलाय कुमारी दातुमनुचितम् किमभिमानादि सर्वस्वं दातुमुचितमिति प्रचा[ता]रिते पादयोः पतित्वा भृत्यो बभूव । तदनु ताभ्यां निजपौरुषेण जगदाश्चर्यमुत्पादितम् । दिनोत्तमेऽङ्कशकनकमालयोविवाहोऽभूत् । कियद्दिनेषु वज्रजङ्घ पुण्डरीकिण्यां प्रस्थाप्य निजबलेन नानादेशान् साधयित्वा महामण्डलिकश्रियालंकृतौ पुण्डरीकिण्यां ऊषतुः । कतिपयदिनेषु तयोरवलोकनार्थ नारद श्रागतः । सीतासमीपस्थयोर्विचित्रभूषणोज्ज्वलवेषयोः स्वरूपातिशयेन निर्जितपुरन्दरयोरनन्तवीर्ययोर्नतयोरुक्तं नारदेन रामलक्ष्मीधराविव ज्ञान नहीं है उसके लिये क्या पुत्री दी जा सकती है ? इस उद्धतता पूर्ण उत्तरको सुनकर वज्रजंधको क्रोध उत्पन्न हुआ । तब उसने पृथुका बलपूर्वक निग्रह करनेके लिये उसके ऊपर सेनाके साथ चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में वज्रजंघने पृथुके पक्ष के सुभट व्याघ्ररथके साथ युद्ध करके उसे बाँध लिया । इस बात को सुनकर पृथुने अपने पक्षके सभी योद्धाओं को एकत्रित किया । इस प्रकार वह अतिशय आश्चर्यजनक सामग्री के साथ आकर स्वयं रणभूमिमें स्थित हुआ । तब इस वृत्तको जानकर वज्रजंघने भी अपने पुत्रों को लानेके लिये लेख भेज दिया । उक्त लेखसे वस्तुस्थितिको जान करके सीताके रोकने पर भी लव और अंकुश पुण्डरीक पुरसे निकलकर पाँच दिनमें वज्रजंघसे जा मिले । वज्रजंधने जब उन्हें देखकर यह पूछा कि तुम दोनों यहाँ क्यों आये हो तो इसके उत्तर में उन्होंने यही कहा कि हम आपको देखनेके लिये आये हैं । उस समय पृथु राजा समस्त सैन्यके साथ व्यूह और प्रति व्यूहके क्रमसे रणभूमिमें स्थित था । लव और अंकुश दानों वज्रजंधकी आज्ञा पाकर युद्ध में संलग्न हो गये। उन दोनोंने पृथुकी बहुत-सी सेनाको नष्ट कर दिया। तब पृथु स्वयं ही लबके सामने आया। फिर उन दोनोंमें आश्चर्यजनक युद्ध हुआ । अन्तमें जब पृथु रथसे रहित होकर भागनेके लिये उद्यत हुआ तब लवने उससे कहा कि जिसके कुलका पता नहीं है उसके लिये कन्या देना तो उचित नहीं है, परन्तु क्या उसके लिये अपना स्वाभिमानादि सब कुछ दे देना उचित है ? इस प्रकार लवके द्वारा तिरस्कृत होकर वह उसके पाँवों में पड़ गया और सेवक बन गया । इस प्रकार उन दोनोंने अपने पौरुषके द्वारा संसारको आश्चर्यचकित कर दिया । अन्ततः अंकुशका विवाह शुभ दिनमें कनकमाला के साथ हो गया । तत्पश्चात् कुछ दिनोंमें वे दोनों वज्रजंघको पुण्डरीकिणी नगरीमें भेजकर अपने सामर्थ्यसे अनेक देशों को जीतने के लिये गये और उन्हें जीत कर के महामण्डली की लक्ष्मीसे विभूषित होते हुए पुण्डरीकिणी पुरीमें वापिस आकर स्थित हुए । कुछ दिनों में उनको देखने के लिये वहाँ नारदजी आ पहुँचे । उस समय विचित्र आभूषणोंके साथ निर्मल वेषको धारण करनेवाले, अपनी अत्यधिक सुन्दरता से इन्द्र के स्वरूपको जीतने १. ब कदाने । २. फश मिलिताः । ३. ब लेखान् । ४ प श क्रमे । ५. फश 'पृथुबले' नास्ति । ६. प किमपिमानादि श किमपिमानापि । ७. फ वीर्ययोस्तपो । ८. फ 'नारदेन' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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