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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ३-६, २३: जीवाभावभ्रान्तिर्गता। तैरणुव्रतानि श्रादायिषत, तेने च तपः। सोऽहं मूर्खध्वज इति । श्रुत्वा कृतकनरेणोक्तम्-हे मुने, यदि तौ इदानीं पश्यसि तर्हि किं करोषि । तर्हि क्षमां कारयाम्येवं चेदावां तवारी त्वया दग्धौ देवलोकेऽजनिध्वहि । मुनिरश्रुपातं कुर्वन्नुवाच यदज्ञानेन मया युवयोर्दुःखं कृतं तत्क्षमेथां तत्फलं मयापि प्राप्तमिति। तदनु तो तत्पादयोलग्नौ, तदा स ध्यानेनास्थात् । तदैव समुत्पन्नकेवलोऽमरादिमहितः श्रीविहारं चकार, सुरगिरौ मुक्तिं ययौ। एवं तपस्विघातकोऽतिरौद्रश्वोरोऽपि मातङ्गोपदिष्टश्रतोपयोगेनैवंविधोऽभूदन्यस्तदुपयोगो किं त्रिलोकीशो न स्यादिति ॥६॥ [२४] संजातो भुवि लोकनिन्दितकुले निन्द्यः सदा दुःखितश्चण्डालोऽभवदच्युताख्यविदिते कल्पेऽमरो दिव्यधीः । वैश्यापादितचारुधर्मवचनः ख्यातो विनीतापुरे धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥७॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डेऽयोध्यायां वैश्यावेकमातृको पूर्णभद्रमणिभद्रनामानौ । तावेकदा जिनालयं गच्छन्तौ चाण्डालं शुनी च वीक्ष्य मोहमाश्रितौ। जिनमभ्यय॑ नत्वा समय जातिस्मरण हो गया। तब उसने पिता आदिकोंसे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त कह दिया। इससे उनकी जीवके अभावविषयक भ्रान्ति नष्ट हो गई। तब उन सबने तो अणुव्रतोंको ग्रहण किया और भीमने तपको । वह मूर्खशिरोमणि मैं ही हूँ। इस सब वृत्तान्तको सुनकर मनुष्यवेषधारी उस देवने कहा कि हे मुनीन्द्र ! यदि उन दोनोंको आप इस समय देखें तो क्या करेंगे ? इसपर भीमने कहा कि मैं उनसे क्षमा कराऊँगा । तब वह देव बोला कि तुम्हारे शत्रु वे दोनों हम ही हैं, तुम्हारे द्वारा अग्निमें जलाये जानेपर हम दोनों स्वर्गमें उत्पन्न हुए हैं। यह सुनकर अश्रुपात करते हुए मुनि बोले कि मैंने जो अज्ञानताके वश होकर तुम दोनोंको कष्ट पहुँचाया है उसके लिये क्षमा करो। मैं भी उसका फल भोग चुका हूँ। तत्पश्चात् वे दोनों ( देव व देवी) मुनिके चरणों में गिर गये । तब निराकुल होकर भीम मुनि ध्यानमें स्थित हो गये। इसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तब देवोंने आकर उनकी पूजा की। फिर उन्होंने विहारकर धर्मोपदेश किया। अन्तमें वे सुरगिरि ( मेरु पर्वत ) से मोक्षको प्राप्त हुए । इस प्रकार मुनिका घात करनेवाला क्रूर वह चोर भी यदि चाण्डालके उपदेशको सुनकर इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब उस धर्मोपदेशमें उपयोगको लगानेवाला भव्य जीव क्या तीनों लोकों का स्वामी न होगा ? अवश्य होगा ॥६॥ जो निन्द्य चाण्डाल इस पृथिवीपर लोकनिन्दित नीच कुलमें उत्पन्न होकर सदा ही दुखी रहता था वह विनीता नगरीमें वैश्यके द्वारा दिये गये निर्मल धर्मोपदेशको सुनकर अच्युत स्वर्ग में दिव्य बुद्धिका धारी ( अवधिज्ञानी ) प्रसिद्ध देव हुआ था। इसीलिए जिनदेवकी भक्ति करनेवाला मैं उस धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे निर्मल चारित्रका धारक होकर लोकमें कृतार्थ होता हूँ ॥७॥ ___ उसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर अयोध्या नगरीमें पूर्णभद्र और मणिभद्र नामके दो वैश्य थे जो एक ही माताके पुत्र थे । एक दिन वे जिनालयको जा रहे थे। १. ब व्रतान्यादयि तेन । २. ब तव वैरी। ३. श मातंगो यदिदिष्ट । ४. ब चारुजनवचनः । ५.५ जिनमभय॑ श जिनमर्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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