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________________ : ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५ सूर्याय॑ ददानस्य तेऽङ्गुल्या निर्गत्य कमलकर्णिकायां सा पतिता वर्तते, प्रातर्गृहाणेति । तथा तां गृहीत्वा राज्ञः समर्प्य कस्याप्यकथयन् तन्निमित्तं शिक्षितुं तदन्तमितः । मुनिर्बभाण निर्ग्रन्थं विहायान्यस्य न सा परिणमतीति । ततः स सर्व पर्यालोच्य निर्ग्रन्थोऽजनि, विद्यां प्रयच्छेति च स वभाण। मुनिरवोचत क्रियाकलापपाठमन्तरेण न परिणमतीति । एवं क्रमेणानुयोगचतुष्टयं पाठयामास । द्रव्यानुयोगपाठे सदृष्टिरासीत् परमतपोधनश्च । स्वगुरुणा सहात्र चम्पायामागतस्य वासुपूज्यनिर्वाणभूमिप्रदक्षिणीकरणेऽवधिरुत्पन्नः । गुरुस्तस्मै स्वपदं दत्त्वा एकविहारी भूत्वा वाराणस्यां मुक्तिमितः। सूर्यमित्र एकदा कौशाम्ब्यां चर्यार्थ प्रविष्टोऽग्निभूतिना स्थापितः । चर्या कृत्वा गच्छन्नग्निभूतिना भणितो वायुभूतिं विलोकयेति । तेनोक्तं सोऽतिरौद्रो नोचितम् । तथापि तदाग्रहेणाग्निभूतिना तद्गृहं जगाम । स मुनि विलोक्य विबुध्य च बहुशोऽपि निन्दां चकार। ततो मुनिनोद्यानं गत्वाग्निभूतिर्मया मुनिनिन्दा कारितेति तद्वैराग्यात् दिदीक्षे । तद्वृत्तान्तं विबुध्य तद्वनिता सोमदत्ता देवरान्तिके जगामावदच्च-रे वायुभूते, त्वया मुनिनिन्दा कृतेति मे भर्चा तपो गृहीतम् । यावत्कोऽपि न जानाति तावत्संबोध्यानयावः, एहीति । ततो सूर्य के लिये अर्घ्य दे रहे थे तब वह अँगुलीमेंसे निकलकर कमलकर्णिकाके भीतर जा पड़ी है । वह अभी भी वहींपर पड़ी हुई है। उसे प्रातः कालमें उठा लेना । पश्चात् उसने वहाँ से उसे उठा लिया और राजाको दे दिया। तत्पश्चात् वह किसीको कुछ न कहकर उस निमित्तज्ञानको सीखनेके लिये मुनिराजके समीपमें गया। मुनिराजने उससे कहा कि दिगम्बरको छोड़कर किसी दूसरेको वह निमित्तविद्या नहीं प्राप्त होती है । तब वह सब सोच-विचार करके दिगम्बर हो गया और बोला कि अब मुझे वह विद्या दे दीजिये। फिर मुनि बोले कि वह क्रियाकलाप पढ़नेके बिना नहीं आती है । इस क्रमसे उन्होंने उसे चारों अनुयोगोंको पढ़ाया। तब द्रव्यानुयोगके पढ़ते समय उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया। अब वह उत्कृष्ट तपस्वी हो गया था। वह अपने गुरुके साथ विहार करता हुआ यहाँ चम्पापुरमें आया । यहाँ उसे वासुपूज्य जिनेन्द्रको निर्वाणभूमिकी प्रदक्षिणा करते समय अवधिज्ञान भी उत्पन्न हो गया। पश्चात् गुरु उसके लिये अपना पद देकर एक विहारी हो गये । उन्हें बनारस पहुँचनेपर मुक्तिकी प्राप्ति हुई। सूर्यमित्र मुनि एक बार आहारके निमित्त कौशाम्बी पुरीके भीतर गये। तब अग्निभूतिने विधिवत् उनका पडिगाहन किया । जब वे आहार लेकर वापिस जाने लगे तब अग्निभूतिने उनसे वायुभूतिको सम्बोधित करनेके लिये प्रार्थना की । मुनिराज बोले कि वह अतिशय क्रूर है, इसलिये उसके पास जाना योग्य नहीं है। फिर भी वे उसके आग्रहको देखकर अग्निभूतिके साथ वायुभूतिके घरपर गये। उसे उन मुनिराजको देखते ही पूर्व घटनाका स्मरण हो आया । तब उसने उनकी बहुत निन्दा की । उस समय अग्निभूतिने मुनिराजके साथ उद्यानमें जाकर विचार किया कि यह मुनिनिन्दा मैंने करायी है। यह विचार करते हुए उसके हृदयमें वैराग्यभावका प्रादुर्भाव हुआ । इससे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । इस वृत्तान्तको जानकर अग्निभूतिकी पत्नी देवरके पास गई और उससे बोली कि रे वायुभूति ! तेरे द्वारा मुनिनिन्दा की जानेसे मेरे पतिदेवने तपको ग्रहणकर लिया है। जब तक कोई इस बातको नहीं जान पाता है तब तक हम दोनों उसके पास चलें १. श परम् तपोनश्च । २. फ विलोकेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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