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________________ ११८ gora कथाकोशम् [ ३-४, २१-२२ : यदा तदा स वस्त्रादिकं दत्त्वाचेऽहं युवयोर्मातुल इति । तच्छ्र ुत्वाग्निभूतिर्ज हर्ष, वायुभूतिकोप चाण्डालस्त्वमावां भिक्षामाटितवान् इति । ततः स्वपुरमागत्य स्वपदे तस्थतुः । राजपूजितौ सुश्रीको भूत्वा सुखिनौ रेमाते । इतो राजगृहे सुबलो मज्जनवारे स्वमुद्रिकां सूर्यमित्रस्य हस्ते तैलम्रक्षणभयाददत्त । स स्वाङ्गुलौ निक्षिप्य स्वगृहं जगाम । भोजनादूर्ध्वं राजभवनं गच्छन् समुद्रिका मपश्यन् विषण्णोऽभूत् । स्वयं निमित्तमजानन् परमबोधाभिधं नैमित्तिकमार्यं तस्य नैमित्तिकस्य कथितं मया चिन्तितं कथय । तदग्रे चिन्तयामास । तेनोक्लमेतन्नामानं हस्तिनं प्रभुं याचयिष्यामि प्राप्नोमि न वेति चिन्तितं त्वया । प्राप्स्यसि याचस्येति । तं विसृज्य स्वहर्म्यस्योपरिमभूमौ सचिन्तो यावदास्ते तावत्पुरवहिरुद्यानं प्रविशन्तं सुधर्माभिधदिगम्बरमपश्यत् । तदन्वयं किंचन ज्ञास्यतीति दिनावसाने केनाप्यजानन् तदन्तिकमाट । तमत्यासन्नभव्यं विलोक्य मुनिरुवाच - हे सूर्यमित्र, राजकीयां मुद्रिकां विनाश्यागतोऽसि । श्रमिति भणित्वा पादयोः पपात । मुनिः कथयति स्म - त्वद्भवनपृष्ठस्थितोद्यानस्थितसरस करना चाहते हो तो पढ़ो मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा । तब उन दोनोंने भिक्षा से ही भोजन करके उसके पास अध्ययन किया । इस प्रकार से वे समस्त शास्त्रों में पारंगत होकर जब घर वापिस जाने लगे तब सूर्यमित्रने उन्हें यथायोग्य वस्त्रादि देकर कहा कि मैं वास्तवमें तुम्हारा मामा हूँ । यह सुनकर अभिभूतिको बहुत हर्ष हुआ । परन्तु वायुभूतिको इससे बहुत क्रोध हुआ । तब उसने उससे कहा कि तुम मामा नहीं, चण्डाल हो, जो तुमने हमें भिक्षाके लिये घुमाया है । तत्पश्चात् वे वहाँसे अपने नगरमें आये और अपने पद (पुरोहित) पर प्रतिष्ठित हो गये । अब वे राजासे सम्मानित होकर उत्तम विभूतिके साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे थे । इधर राजगृहमें राजा सुबलने स्नान के अवसरपर तेलसे लिप्त हो जाने के भय से अपनी मुंदरी सूर्यमित्र के हाथमें दे दी । वह उसे अँगुलीमें 'पहिनकर अपने घरको चला गया । भोजनके पश्चात् जब वह राजभवनको जाने लगा तब वह अँगुली में उस मुद्रिकाको न देखकर खेदको प्राप्त हुआ। वह स्वयं निमित्तज्ञ नहीं था, इसलिये उसने परमबोधि नामके ज्योतिषीको बुलाकर उससे कहा कि मैंने जो कुछ सोचा है उसे बतलाइये । तत्पश्चात् उसने उसके आगे कुछ चिन्तन किया । ज्योतिषीने कहा कि तुमने यह विचार किया है कि 'मैं राजासे अमुक नामवाले हाथीको मागूँगा, वह मुझे प्राप्त होता है कि नहीं।' तुम उसको प्राप्त करोगे, याचना करो। फिर वह उस ज्योतिषीको वापिस भेजकर अपने भवनके ऊपर गया । वह वहाँ छतपर चिन्ताकुल बैठा ही था कि इतने में उसे नगरके बाहर उद्यानमें जाते हुए सुधर्म नामके दिगम्बर मुनि दिखायी दिये । तत्पश्चात् उसने विचार किया कि ये उस सुंदरीके सम्बन्ध में कुछ जानते होंगे । इसी विचारसे वह सन्ध्या के समय छुपकर उनके निकट गया। मुनि उसको अति आसन्न भव्य जानकर बोले कि हे सुमित्र ! तू राजाकी सुंदरीको खोकर यहाँ आया है। तब वह 'हाँ, मैं इसी कारण आया हूँ' यह कहते हुए उनके चरणों में गिर गया। मुनिने कहा कि तुम अपने भवन के पीछे स्थित उद्यानवर्ती तालाब में जब १. ब 'तदा' नास्ति । २. प दत्वा चेहं फ दत्वाहं । शदत्वावं । ३. ब 'भूतिश्च कोपाचाण्डाल' | शभूतिश्चको पोश्चाण्डाल' । ४. ब प्रतिपाठोऽयम् । श मज्जनवासरे । ५ ब निमित्तेनाजानन् । ६. प ब अतोऽग्रे 'कथय' पर्यन्तः पाठो नास्ति । ७. श अकथितं । ८. फ एतदग्रे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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