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३. श्रुतोपयोगफलम् २
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शोकः कृतः । तदनु पत्नीगतिमें इति निर्गतः । आर्तेन मृत्वा तिर्यग्गतौ भ्रमित्वा एकदा तारास्येसरोवरे हंसो जातः मुनिवचनानि श्रुत्वा किंनरत्वं प्राप्य तस्मादागत्य तन्नगरेशप्रकाशसिंह- प्रियमत्योः कुण्डलमण्डितो भूत्वा राज्ये स्थितः । स कपिलो गतद्रव्यः काष्ठान्यानेतुं गतः । बाह्याल्यर्थ गच्छता कुण्डलमण्डितेन चित्रोत्सवादर्शनादासक्तचेतसा स्वगृहं नीत्वा स्थितम् । कपिलो गृहमागत्य काष्ठभारं निक्षिप्य तामपश्यन् विलपन्नकेन भणितः आर्जिकाभिर्गतेति । भूवलयं परिभ्रभ्य राशा नीतेति ज्ञात्वा पूत्कारं कुर्वन्निर्धाटितो गत्वा मुनिरभूत्तदार्तेन मृत्वा धूमप्रभो जातः । तद्भयात् दम्पतीभ्यामरण्ये नश्यद्भयां मुनिसमीपे श्रावकव्रतानि गृहीतानि । कियत्कालं राज्यानन्तरं मृत्वा प्रभामण्डल- सीते जाते इत्यासक्तिर्जाता । विमुच्यादयः पुत्रपुत्री स्नेहाद्देशान्तरं गताः । संवरनगरोद्याने मुनिं प्रणस्य तपसा देवो देव्यौ च भूत्वा सौधर्मादागत्य देव इन्दुगतिर्जातः मनस्विनी पुष्पवती, ज्वाला विदेही जातेति स्नेहकारणं निशम्य सर्वेऽपि महाविभूत्या पुरं प्रविष्टाः । विद्याधरपवनवेगाज्जनको ज्ञात्वा द्रष्टुं वियदागतो
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आया तब वह वहाँ स्त्रीको न पाकर शोकाकुल हुआ । तत्पश्चात् वह जो पत्नीकी अवस्था हुई वही मेरी भी अवस्था क्यों न हो, यह सोचकर घर से निकल गया । वह आर्तध्यानके साथ मरकर तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता हुआ एक बार तारा नामक तालाब के ऊपर हंस हुआ। फिर वह मुनिके वचनों को सुनकर किन्नर हुआ और तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर उक्त नगर ( विदग्ध ) के स्वामी प्रकाशसिंह और प्रियमतीका कुण्डलमण्डित नामका पुत्र होकर राजाके पदपर स्थित हुआ | उधर निर्धन कपिल एक दिन लकड़ियाँ लानेके लिये जंगलमें गया था । इधर कुण्डलमण्डित भ्रमणके लिये बाहर निकला था । मार्गमें जाते हुए वह चित्रोत्सवाको देखकर उसपर मोहित हो गया । इसीलिये वह उसे अपने घरपर ले गया । उधर जब कपिल वापिस आया तब उसने लकड़ियों के बोझको रखकर चित्रोत्सवाको देखा । परन्तु उसे वह वहाँ नहीं दिखी । तब वह उसके लिये अनेक प्रकारसे विलाप करने लगा । इतने में किसी एक मनुष्यने उससे कहा कि वह आर्यिकाओं के साथ गई है । तब वह उसे खोजने के लिये पृथिवीमण्डलपर घूमा, परन्तु वह उसे प्राप्त नहीं हुई । जब उसे यह ज्ञात हुआ कि चित्रोत्सवाको राजा अपने घर ले गया है तब वह दीनतापूर्ण आक्रन्दन करता हुआ वहाँ पहुँचा । किन्तु उसे वहाँसे निकाल दिया गया । तब वह मुनि हो गया । किन्तु उसका आर्तध्यान नहीं छूटा। इस प्रकार वह आर्तध्यानके साथ मरकर धूमप्रभ असुर हुआ । उसके भयसे कुण्डलमण्डित और चित्रोत्सवा दोनों भागकर वनमें पहुँचे । वहाँ उन दोनों ने मुनिके समीपमें श्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया । तत्पश्चात् कुछ समय तक राज्य करके वे मरणको प्राप्त होते हुए प्रभामण्डल और सीता हुए हैं । तुम्हारी सीता विषयक आसक्तिका कारण यह रहा है । विमुचि आदि पुत्र-पुत्री के स्नेह से देशान्तरको चले गये। उन सबने संवर नगरके उद्यानमें जाकर मुनिकी वंदना की और उनसे दीक्षा ले ली । इनमें से विमुचि मरकर देव और मनस्विनी तथा ज्वाला मरकर देवियाँ हुईं । फिर सौधर्म स्वर्गसे च्युत होकर वह देव इन्दुगति, देवी पर्यायको प्राप्त हुई मनस्विनी पुष्पवती, तथा ज्वाला विदेही हुई । इस प्रकार मुनिसे पारस्परिक स्नेहके कारणको सुनकर सब ही महाविभूतिके साथ नगर में वापिस गये। उधर पवनवेग विद्याधरसे प्रभामण्डल के वृत्तान्तको जानकर उसे देखनेके लिये जनक भी वहाँ आकाशमार्गसे
१. व ताराक्ष । २. प बाह्यात्पवंकश बाह्यात्पार्थं । ३. पफश स्थितः । For Private & Personal Use Only
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