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________________ ६२ पुण्यात्रवकथाकोशम् [२-६, १७: वृष्टयादिकं विधाय स्वर्गलोकं गतः। राशी वृक्षेऽवलम्ब्य मृत्वा पाटलिपुत्रे व्यन्तरी जशे । पण्डिता पलाय्य पाटलीपुत्र एव देवदत्ताभिधवेश्यागृहेऽस्थात् स्वरूपं निरूपितवतो च । देवदत्ता कपिलाभयमत्योर्हास्यं विधाय प्रतिज्ञा चकार यदि सुदर्शनं मुनिं पश्यामि तत्तपो विनाशयिष्यामीति। इतो राजा सुदर्शनं प्रत्यवदद्यदज्ञानेन मयाकृतं तत्सर्वे क्षमित्वार्धराज्यं गृहाण । सुदर्शनो ब्रूते 'श्मशानादानयनसमय एव यस्मिन्नुपसर्गे जीविष्यामि पाणिपात्रेण भोदये' इति कृतप्रतिशस्ततो दीक्षे" इत्यनेन प्रकारेण व्यवस्थापितोऽपि जिनालयं गतः जिनं पूजयित्वाऽभिवन्द्य विमलवाहनाभिधं यति चापृच्छत् मनोरमाया उपरि मे बहुमोहहेतुः क इति । साह- अत्रैव विध्यदेशे काशीकोशलपुरेशभूपालवसुन्धर्योरपत्यं लोकपालः। स भूपालः पुत्रादियुतः श्रास्थाने आसितः सिंहद्वारे पूत्कुर्वतीः प्रजाः अपश्यत् । तत्कारणे पृष्टे अनन्तबुद्धिमन्त्रिणोच्यतेऽस्मादक्षिणेन स्थितविन्ध्यगिरौ व्याघ्रनामा भिल्लस्तद्वनिता कुरङ्गी। स प्रजानां बाधां करोतीति पूत्कुर्वन्ति प्रजाः। ततो राशा बहुबलेनानन्तनामा चमूपतिस्तस्योदी। फिर वह राजाके सैन्यको जीवित करके और सुदर्शन सेठकी पूजा करके उसके आगे पुष्पोंकी वर्षा आदिको करता हुआ स्वर्गलोकको वापिस चला गया । इधर रानीने जब इस अतिशयको देखा तब उसने वृक्षसे लटककर अपने प्राण दे दिये। इस प्रकारसे मरकर वह पाटलीपुत्र ( पटना ) नगरमें व्यन्तरी उत्पन्न हुई । वह पण्डिता धाय भी भयभीत होकर भाग गई और उसी पाटलीपुत्र नगरमें एक देवदत्ता नामकी वेश्याके घर जा पहुँची । वहाँ उसने देवदत्तासे पूर्वोक्त सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर देवदत्ताने कपिला और अभयमतीको हँसी उड़ाते हुये यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं उस सुदर्शन मुनिको देखूगी तो अवश्य ही उसके तपको नष्ट करूँगी। __ इधर इस आश्चर्यजनक घटनाको देखकर राजा सुदर्शन सेठसे बोला कि मैंने अज्ञानतावश जो आपके साथ यह दुर्व्यवहार किया है उस सबको क्षमा करके मेरे आधे राज्यको स्वीकार कीजिए। इसके उत्तरमें सुदर्शन सेठ बोला कि हे राजन् ! मैंने स्मशानसे लाते समय ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि मैं इस उपद्रवसे जीवित रहा तो पाणिपात्रसे भोजन करूँगा- मुनि हो जाऊँगा। इसीलिए अब दीक्षा लेता हूँ। इस प्रकार राजाके रोकनेपर भी उसने जिनालयमें जाकर जिनेन्द्रकी पूजा-वंदना की। फिर उसने विमलवाहन नामक मुनीन्द्रकी वंदना करके उनसे पूछा कि भगवन् ! मनोरमाके ऊपर जो मेरा अतिशय प्रेम है उसका क्या कारण है ? मुनि बोले- इसी भरत क्षेत्रके भीतर विन्ध्य देशके अन्तर्गत काशी-कोशल नामका एक नगर है । उसमें भूपाल नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम वसुन्धरी था। इनके एक लोकपाल नामका पुत्र था। एक दिन राजा भूपाल पुत्रादिकोंके साथ सभाभवनमें बैठा हुआ था। तब उसने सिंहद्वारके ऊपर चिल्लाती हुई प्रजाको देखकर मंत्रीसे इसका कारण पूछा। तदनुसार अनन्त अनन्तबुद्धिः मंत्री बोला कि यहाँसे दक्षिणमें एक विन्ध्य नामका पर्वत है। वहाँ एक व्याघ्र नामका भील रहता है। उसकी स्त्रीका नाम कुरंगी है। वह प्रजाको पीड़ित किया करता है। इसीलिए वह चिल्ला रही है। तब राजाने उसके ऊपर आक्रमण करनेके लिए बहुत-सी सेनाके साथ अनन्त नामक सेनापतिको भेजा । उसे भीलने जीत लिया। तब राजा स्वयं ही जानेको १. ब स्वल्र्लोकं । २. ब ०दत्ताविधावेश्यागृहेऽस्थात्तस्य [स्या] स्तत्स्वरूपं । ३. प श स्मशाना। ४. फ कृतः प्रतिज्ञा ततो व कृतप्रतिज्ञास्ततो। ५. व दीक्ष्ये । ६. ब इत्यनेकप्र० । ७. प श भूपालबलवसु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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