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________________ ६१ : २-६, १७ ] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् । निर्गत इतरोऽपि मायया चातुरङ्गं बलं विधाय व्यूह-प्रतिव्यूहक्रमेण रणरङ्गेऽस्थात् । तदनु उभयोः सेनयोर्जगञ्चमत्कारकारी संग्रामोऽजनि । बृहद्वेलायामुभयबलमप्यावर्तते स्म । तदोभयोमुख्ययोहस्तिनावन्योन्यं संमुखीभूतौ। तत्र देवोऽवोचदहं देवोऽतिप्रचण्डो मद्धस्ते मा म्रियस्व, सुदर्शनस्य चिन्तां विहाय सुखेन राज्यं कुर्विति । भूपेनोच्यते त्वं देवश्चेत्किं जातम् , देवाः किं पार्थिवानां किंकरा न स्युः । कुरु युद्धं, दर्शयामि ते मद्भुजप्रतापमिति । तत उभयोर्महद्रणे राजा विपक्षस्य हस्तिनं बाणैरापूर्यापीपतत् । ततोऽन्यं द्विपं चटित्वा तत्प्रतापमालोक्यानन्देन यक्षो युद्धवान् । तद्वारणं च पातयति स्मान्यवारणमारुह्य राजा युयुधे । यतस्तस्य च्छत्रध्वजौ चिच्छेद वारणं च जघान । राजा रथमारुह्य युद्धवानितरोऽपि । उभावपि विद्याबाणयुद्धेन जगत्त्रयाश्चर्यमुत्पादयांचक्रतुः । बृहद्वेलायां राजा यक्षरथं बभञ्ज । तदनु भूमावस्थात्तं भूपो जघान । तदा तौ द्वौ जातौ । एवं द्विगुण-द्विगुणक्रमेण सर्वा रणभूमियाप्ता तेन । तदा राजा भयभीतो नष्टुं लग्नोऽन्यस्तु पृष्ठतो लग्नोऽवदद्यदि श्रेष्टिनं शरणं प्रविशसि तदा जीवसि, नान्यथेति । ततः स तं शरणं प्रविष्टः 'श्रेष्ठिन्, रक्ष रक्ष' इति । तदा श्रेष्ठी हस्तावुद्धत्य यक्षं निवार्य कस्त्वमिति पृष्टवान् । यक्षः श्रेष्ठिनं प्रणम्य स्वरूपं निरूपितवान् , राशोऽभयमतीवृत्तान्तं प्रतिपाद्य बलं पुनर्जीवयित्वा श्रेष्ठिनं पूजयित्वा तदने पुष्पसेनाको निर्मित करके व्यूह और प्रतिव्यूहके क्रमसे रणभूमिमें आ डटा। फिर क्या था ? दोनों ही सेनाओंमें आश्चर्यजनक घोर युद्ध होने लगा। इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भी जब दोनों सेनाओंका चक्र पूर्ववत् ही चलता रहा-- दोनोंकी स्थिति समान ही बनी रही- तब उन दोनों प्रमुखोंके हाथी एक-दूसरेके अभिमुख स्थित हुए। उनमेंसे यक्षने राजासे कहा कि मैं अतिशय क्रोधी देव हूँ, मेरे हाथसे तू व्यर्थ प्राण न दे, सुदर्शनकी चिन्ताको छोड़कर तू सुखपूर्वक राज्य कर—उसे दण्ड देनेका विचार छोड़ दे। यह सुनकर राजा बोला कि यदि तू देव है तो इससे क्या हो गया, क्या देव राजाओं के दास नहीं होते हैं ? तू मेरे साथ युद्ध कर, मैं तुझे अपने बाहुबलको दिखलाता हूँ। तब उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। उसमें राजाने शत्रुके हाथीको बाणों की वर्षासे परिपूर्ण करके गिरा दिया । तब यक्ष दूसरे हाथीपर चढ़ा और उसके प्रतापको देखकर आनन्दपूर्वक युद्ध करने लगा। उसने भी राजाके हाथीको गिरा दिया। तब राजा दूसरे हाथीके ऊपर चढ़कर युद्ध करने लगा। तब यक्षने उसके छत्र और ध्वजाको नष्ट करके हाथीको भी मार गिराया। तब राजाने स्थपर चढ़कर युद्ध प्रारम्भ किया। यह देखकर शत्रुने भी उसी प्रकारसे युद्ध किया। इस प्रकार दोनोंने विद्यामय बाणोंसे युद्ध करके तीनों लोकों को आश्चर्यचकित कर दिया । बहुत समय बीतनेपर राजाने यक्षके रथको तोड़ डाला । तब वह भूमिमें स्थित हुआ। राजाने उसे मार डाला । तब वे दो हो गये। इस क्रमसे उत्तरोत्तर वे दूने-दूने गये। इस प्रकार उनसे समस्त रणभूमि ही व्याप्त हो गई। अब तो राजा भयभीत होकर भागने में उद्यत हो गया । तब वह यक्ष भी उसके पीछे लग गया । वह बोला कि यदि तू सेठकी शरणमें जाता है तो तेरी प्राणरक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं। तब वह हे सेठ ! मुझे बचाओ मुझे बचाओ, यह कहता हुआ सुदर्शन सेठकी शरणमें गया। उस समय सेठने हाथों को उठाकर यक्षको रोकते हुए उससे पूछा कि तुम कौन हो। इसके उत्तरमें यक्षने सेठको नमस्कार करके सब वृत्तान्त कह दिया। तत्पश्चात् यक्षने राजासे रानीके दुराचरणकी सब यथार्थ घटना कह १. श चितां । २. प बशपीपतन् । ३. श प्रतिपद्य । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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