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________________ २४ णायकुमारचरियं आदि के रचयिताओं ने अपने-अपने ग्रन्थों को देशी भाषा के प्रयोगों से युक्त बताया है । यद्यपि ये ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृत या अपभ्रंश में रचित हैं, किन्तु इनमें देशी शब्दों की प्रचुरता है। अपभ्रंश तथा महाराष्ट्री प्राकृत को भी अनेक विद्वानों ने देशी भाषा माना है। लीलावई कहा' तथा कुवलयमाला में कवि महाराष्ट्री प्राकृत को देशी के रूप में स्वीकार करते हैं।' महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर ने भी देशी शब्द का प्रयोग मराठी के लिए किया है। शाबरभाष्य में देशी भाषा के संदर्भ में अपभ्रंश का उल्लेख हुआ है। ___ इसके अतिरिक्त और भी अनेक उल्लेख इन भाषाओं को देशी मानने के सन्दर्भ में मिलते हैं। इनसे स्पष्ट है कि देशी शब्द का प्रयोग अपभ्रंश, महाराष्ट्री तथा जनपदीय बोलियों के लिए भी होता रहा है। ये दोनों .... अपभ्रंश और महाराष्ट्री भाषाएं देशी हैं या नहीं .... इसके विषय में विद्वानों ने पर्याप्त चिन्तन किया है। अधिक संभव लगता है कि यहां देशी या देशीशब्द का प्रयोग प्रान्त या उस देशविशेष के लिए किया हो। प्रसिद्ध भाषाविद् जूलब्लाक तथा डा० कीथ ने यह सिद्ध किया है कि अपभ्रंश देशीभाषा नहीं थी किन्तु आभीर एवं गूजरों की भाषा थी। अपभ्रंश के आज अनेकों ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें प्रचुर देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिए डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित 'भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य' पुस्तक में उल्लिखित कुछ देशी शब्दों एवं धातुओं का नीचे निर्देश किया जा रहा है - तलाय (तलाब), हंसि (हंसिनी), संड (सांड), धीवर, अट्ठारह, चउदह, चउसट्ठि, पासु (पास), आजु (आज), मंदलु, कायरा (कायर), गवार (गंवार), अगवाणिय (अगवानी), वणिजारिय (बनजारा) आदि । __ इसी प्रकार इसमें देशी क्रिया-रूपों तथा सर्वनामों की भी प्रचुरता है। सर्वनाम के कुछ शब्द-रूप इस प्रकार हैं--जो, सो, ए, को, हउ, हउं, (हों), कवणु (कोन), मइं (मैं), हमारे, अम्हारिय, इह, यहि, किह (कैसे) इस, जिह (जैसे), जे, ता और जं इत्यादि। देशी क्रियापदों के कुछ रूप----पूछिय, आयउ, तोडिय, देखेवि, लग्ग (लगे हुए) घल्लिय, ढोइय, छोडइ, पडिउ, छूट उ, हक्क दिति (हांक देते हैं), १. णायकुमारचरियं, ११ : णीसेसदेसभासउ .."चवंति। २. लीलावई कहा, गाहा १३३० : भणियं च पियय भाए, रइयं मरहट्ठ देसी भासाए। ३. कुवलयमाला, पृष्ठ ४ : पाइयभासारइया मरहट्ठय-देसि-वण्णय-णिबद्धा। ४. भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, पृष्ठ ३११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016051
Book TitleDeshi Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages640
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size19 MB
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