SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २ स्थापना -- ज्ञात अर्थ की समीक्षा कर हृदय में स्थापित करना । प्रतिष्ठा- -ज्ञात अर्थ को उसके भेद-प्रभेद पूर्वक धारण करना । कोष्ठ – सूत्र और अर्थ को चिरकाल तक धारण करना, वह विस्मृत न हो, उस रूप में धारण करना (कोठे में रखे धान की भांति उपदिष्ट अर्थ को सकल रूप में चिरकाल तक धारण करना । ) उमास्वाति ने प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम और अवबोध आदि शब्दों को धारणा के पर्याय माने हैं।' धारणववहार ( घारणाव्यवहार ) किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य की अपराध शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त विधि का उपयोग करना 'धारणाव्यवहार है । इसके पर्याय शब्दों का आशय इस प्रकार है १. उद्धारणा - छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना । २. विधारणा - विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना । ३. संधारणा- धारण किये हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना । ४. संप्रधारणा - पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्तं का विधान करना । पुण्ण (दे) ३३८ 'धुण्ण' शब्द पाप के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला देशी शब्द है । ध्रुव ( ध्रुव) ध्रुव आदि छहों शब्द ध्रुवता के ही बोधक हैं । उनका शब्दगत अर्थभेद इस प्रकार है १. ध्रुव - अचल | २. नित्य – सदा एक रूप रहने वाला । ३. शाश्वत - प्रतिक्षण अस्तित्व में रहने वाला । ४. अक्षय- - अविनाशी । १. तभा १।१५ । २. व्यभा १० टी प ३०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy