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________________ परिशिष्ट २ इसलिए उसे तमस्काय कहा जाता है । लोक में उसके समान कोई दूसरा अंधकार नहीं है, इसलिए इसे लोकांधकार कहा जाता है । देवों का प्रकाश भी उस क्षेत्र में हतप्रभ हो जाता है, इसलिए उसे देवांधकार कहा जाता है । उसमें वायु प्रवेश नहीं पा सकती, इसलिए उसे वातपरिघ और वातपरिघक्षोभ कहा जाता है । यह देवों के लिए भी दुर्गम है, इसलिए उसे देव-आरण्य और देवव्यूह कहा जाता है ।' ३२८. तरच्छ (तरक्ष) 'तरच्छ' आदि शब्द वर्ण, आकार आदि के आधार पर व्याघ्र की भिन्न - २ जातियों के बोधक हैं । तितिक्खा ( तितिक्षा) तितिक्षा, अहिंसा और ही को नियुक्तिकार ने संयम का पर्याय माना है । तथा इसके साथ दया, संयम लज्जा, दुगुञ्छा और अछलना को भी इसी के पर्यायवाची माना है। टीकाकार ने इसकी व्याख्या में यह स्पष्ट किया है कि ये सभी शब्द नाना देश के विद्यायों को अर्थबोध कराने के लिए प्रयुक्त हैं ।' देखें— 'दया' । तिरीड ( किरीट) प्रस्तुत एकार्थक में मस्तक पर पहने जाने वाले विभिन्न आकृति के मुकुटों का उल्लेख है। कुछ शब्द विभिन्न देशों में प्रसिद्ध मुकुटों के वाचक हैं । सामान्यतः मुकुट और किरीट एकार्थक हैं लेकिन इनमें कुछ अन्तर है । जिसमें तीन शिखर हो वह किरीट तथा चार शिखर वाले को मुकुट कहते हैं । तिलोवलद्धीय (तिलोपलब्धिक) 'तिलोवलद्वीय' आदि तीनों शब्द तिल से निष्पन्न खाद्य पदार्थ के वाचक हैं | वर्तमान में इसे तिलपपड़ी कहा जाता है । तिसरा (दे) 'तिसरा ' के पर्याय में यहां नौ शब्दों का उल्लेख है । ये सारे शब्द मछली पकड़ने के जाल विशेष के लिए प्रयुक्त होने वाले देश्य शब्द हैं । आज इनकी पहचान दुर्लभ है । १. ठाणं पृ ५१० । २. उशाटी प १४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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