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________________ परिशिष्ठ २ : ३०७ भेद इस प्रकार है१. कीत्ति-दूसरों के द्वारा गुणकीर्तन, दान, पुण्य आदि से होने वाली प्रसिद्धि । २. वर्ण-लोकव्यापी यश। ३. शब्द-लोक प्रसिद्धि । ४. श्लोक-ख्याति । दशवकालिक सूत्र के टीकाकार हरिभद्र ने क्षेत्र के आधार पर इनका अर्थ भेद किया है, जैसे- सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा कीर्ति, एक दिग्व्यापी प्रसिद्धि वर्ण, अर्धदिग्व्यापी प्रशंसा 'शब्द', तथा स्थानीय प्रशंसा श्लोक है।' कुंडल (कुण्डल) 'कुंडल' शब्द के पर्याय में ११ शब्दों का उल्लेख है। लगभग सभी शब्द कर्ण से प्रारम्भ हैं । बक, तलपत्तक, दक्खाणक, मत्थग आदि शब्द आज अप्रचलित हैं। कुछ शब्दों का आशय इस प्रकार है१. कर्णकोपक-भारी होने से कान को लम्बा करने वाला कुंडल । २. कर्णपीड-कान को पीड़ा पहुंचाने वाला। ३. कर्णपूर-पूरे कान को ढंकने वाला। ४. कर्णकीलक-कान में पहनी जाने वाली बाली । ५. कर्णलोटक-कान के नीचे लटकने वाले लम्बे झूमके । कुल (कुल) .. देखें-'संघ'। केज्जूर (केयूर) 'केज्जूर' शब्द के पर्याय में ७ शब्दों का उल्लेख है। बाजूबंध के अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। लेकिन इनमें आकृतिगत भिन्नता अवश्य है । 'तलभ' कंदूग, परिहेरग आदि शब्द इसी अर्थ में देशी हैं। १. दसहाटी पृ ४७१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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