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________________ परिशिष्ट २ । २९७ उक्कंचण (उत्कञ्चन) ____ 'उक्कंचण' से 'साइसंपयोग' तक के शब्द माया के एकार्थवाची हैं । टीकाकार ने इन शब्दों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । १. उत्कञ्चन-गुणहीन पदार्थों के गुणों का उत्कर्ष प्रतिपादन करना जिससे ज्यादा मूल्य प्राप्त किया जा सके। २. वञ्चन-दूसरों को ठगना । ३. माया-छलने की बुद्धि । ४. निकृति-बकवृत्ति से जेबकतरे की तरह व्यवहार करना। ५. कूट-तोल-माप सम्बन्धी न्यूनाधिकता । ६. कपट-वेश बदलकर अथवा भाषाविपर्यय से किसी को ठगना । ७. सातिसंप्रयोग-बहलता से वक्रता का प्रयोग अथवा सातिशय द्रव्य कस्तूरी आदि में अन्य द्रव्यों की मिलावट । 'सो होइ साइजोगो, दव्वं जं छुहिय अन्नदव्वेसु । दोसगुणा वयणेसु य, अत्थविसंवायणं कुणइ ॥' उक्किट्ठ (उत्कृष्ट) उक्किट्ठ आदि शब्द गति के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । ये सभी शब्द गति-त्वरा के अर्थ में एकार्थक हैं।' कुछ शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार है१. उत्कृष्ट - उत्कृष्ट गति से चलना। २. त्वरित शरीर को हिलाते हुए चलना । ३. चंड--आकुल-व्याकुल होकर गति करना। ४. छेक - कुशलता पूर्वक चलना । ५. सिंह-सिंह के समान बिना आयास के चलना । उखड्डमड्ड (दे) कुछ शब्द ध्वनि से अपना अर्थ अभिव्यक्त करते हैं। इसे अंग्रेजी १. ज्ञाटी प ८६ । २. भटी प १७८ : एकार्था वैते शब्दाः प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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