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________________ २८८ : परिशिष्ट २ आओसणा ( आक्रोशना ) 'आओसण' आदि शब्द आक्रोश व्यक्त करने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं'– १. आक्रोश — क्रोध करना । २. निर्भर्त्सन - भर्त्सना करना । ३. उद्धसण -- अपमानित करना । आगासत्यिकाय (आकाशास्तिकाय) आकाश के अभिवचन / पर्यायवाची नाम २७ हैं । व्युत्पत्तिगत भिन्नता भगवती टीका में उल्लिखित है । १. आकाश -- जिसमें सभी पदार्थ अपने अपने स्वरूप में प्रकाशित होते हैं । २. गगन - अबाधित गमन का कारण । ३. नभ - शून्य होने से जो दीप्त नहीं होता । ४. सम — जो एकाकार है, विषम नहीं है । ५. विषम — जिसका पार पाना दुष्कर है | ६. खह - भूमि को खोदने से अस्तित्व में आने वाला । ७. विध— जिसमें क्रियाएं की जाती हैं । ८. वीचि - विविक्त स्वभाव वाला । ६. विवर - आवरण न होने के कारण विवर । १०. अम्बर - माता की भांति जनन सामर्थ्य से युक्त पानी का दान करने वाला । ११. अंबरस —– जल को धारण करने वाला । १२. छिद्र —-छेदन से उत्पन्न होने वाला | १३. भुषिर - पोलाल - रिक्तता को प्रस्तुत करने वाला । १४. मार्ग - गमन करने का मार्ग । १५. विमुख - प्रारम्भिक बिन्दु के अभाव के कारण विमुख । १. निरटी पृ १२ : एते समानार्थाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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