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________________ २५२ ● परिशिष्ट २ प्रथम स्थान है । यद्यपि ये सभी शब्द अर्हद् / केवली के द्योतक हैं, लेकिन समभिरूढ नय की दृष्टि से इनकी व्याख्या अलग-अलग की जा सकती है । १. अर्हत्- - अध्यात्म की उच्च भूमिका को प्राप्त । २. जिन - कर्म शत्रु को जीतने वाले । ३. केवली — केवल / सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाले । ४. सर्वज्ञ – भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विषयों के ज्ञाता, - त्रिकालज्ञ | ५. सर्वदर्शी — त्रिकालदर्शी, अथवा सब प्राणियों को आत्मक्त् देखने वाले । ६. जात-- - निसर्गत: शुद्ध क्षर (अरिन्) अरि का अर्थ है – शत्रु । कामभेद से इन सभी शब्दों का अर्थ-भेद इस प्रकार है' - ין १. अरि-शत्रु 1 २. वैरी - जातिगत वैरी, जैसे--- सर्प और नकुल । ३. घातक - किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा अपने शत्रु को मरवाने वाला । ४. वधक - स्वयं मारने वाला । ५. प्रत्यमित्र - जो पहले मित्र होकर कारणवश फिर अमित्र / शत्रु बन जाये । इस प्रकार ये सभी शब्द शत्रुता की उत्पत्ति में साधक अथवा शत्रु के प्रकारों के द्योतक हैं । अलिय ( अलीक ) अलीक का अर्थ है -असत्य । यहां इसके तीस अभिवचन दिये गये हैं । वे असत्य की विभिन्न अवस्थाओं और फलश्रुतियों के द्योतक हैं । अनेक शब्द असत्य के हेतु बनते हैं जैसे नूम ( माया ) आदि । वह १. अनुद्वामटी प १०७ । २. जंबूटी प १२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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