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________________ २७६ : परिशिष्ट २ ४. मान-उचित सम्मान देना। ५. सत्कार-वस्त्र आदि देकर आदर करना । ६. सम्मान–बहुमान देना, हार्दिक अनुराग व्यक्त करना। अज्झत्थिय (आध्यात्मिक) ये सभी शब्द चिन्तन की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैंआध्यात्मिक-अध्यवसायगत चितन । चिंतित-विकल्पात्मक चिंतन । कल्पित--उभयरूप चिन्तन । प्रार्थित-अभिलाषात्मक चिन्तन । मनोगतसंकल्प-वस्तु को प्राप्त करने का मानसिक संकल्प । इनमें अर्थभेद होते हुए भी टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' अणासव (अनास्रव) 'मणासब' आदि शब्द मुनि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं। इनकी अर्थपरम्परा इस प्रकार हैअनाश्रव-नवीन कर्मों के आस्रव से रहित । अकलुष-पाप रहित । ..-कर्म जल आने वाले छिद्रों को रोकने वाला। अपरिस्रावी । असंक्लिष्ट-चैतसिक क्लेश से मुक्त शुद्ध-निर्दोष । इस प्रकार ये सभी शब्द विशुद्ध चेतना की क्रमिक अवस्थाओं के वाचक हैं। देखें-'संत'। अणुओग (अनुयोग) ___ अनुयोग का अर्थ है-व्याख्या पद्धति । किसी भी पदार्थ के सभी १. विपाटी प ३८ : एतान्यप्येकार्थानि । २. प्रटी प ११३ । अछिद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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