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________________ शय्या ५५४ आगम विषय कोश-२ णवि जोइसंण गणियं,ण अक्सरेण वि य किंचि रक्खामो। मुनि वसति का ऋतुबद्धकाल में दो बार–पूर्वाह्न और अपराह्न अप्पस्सगा असुणगा, भातणखंभोवमा वसिमो॥ में तथा वर्षाकाल में तीन बार प्रमार्जन करे। तीसरी बार है मध्याह्न । (बृभा ३३३७, ३३६५) जीव-संसक्त वसति का बहुत बार प्रमार्जन करे। जीवों का अति गृहस्थ शय्यागवेषक मुनि से कहता है-आप हमें ज्योतिष, संघट्टन हो तो अन्यत्र चले जाना चाहिए। निमित्त, छन्दशास्त्र और गणित का ज्ञान दें तथा हमारे बच्चों को १५. सचित्र शय्या में रहने का निषेध लिपिविज्ञान, व्याकरण आदि पढायें तो यहां रह सकते हैं। अगीतार्थ ""उवस्सयं"आइण्णसंलेक्खं णो पण्णस्स णिक्खइन बातों को स्वीकार कर लेते हैं-यह अनुज्ञापना-अयतना है। मणपवेसाए णो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहसाधु गृहस्वामी से स्पष्ट कहें धम्माणुओग-चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा, हम न तो ज्योतिष, गणित या अक्षरविज्ञान सिखायेंगे और सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेतेज्जा॥ (आचूला २/५६) न घर आदि की सुरक्षा करेंगे। भाजन, स्तंभ आदि की तरह हम ___ जो उपाश्रय स्त्री-पुरुषों से आकीर्ण हो, चित्रकर्मयुक्त हो, व्यापार से मुक्त होकर रहेंगे। घर में कोई हानिप्रद दृश्य देखते हुए वहां प्राज्ञ मुनि निष्क्रमण और प्रवेश न करे। प्राज्ञ के वाचना, भी अपश्यक की तरह रहेंगे। कोई कहेगा कि शय्यातर को अमुक प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मानयोग और धर्मचिंता के लिए बात कह देना, उसे सुनते हुए भी हम अश्रोता की तरह रहेंगे। वह स्थान उपयुक्त नहीं है, वैसे उपाश्रय में स्थान, शय्या और १४. शय्या-प्रवेश-प्रमार्जन विधि निषद्या न करे। पडिलेहण संथारग, आयरिए तिन्नि सेस एक्केक्कं। विंटियउक्खेवणया, पविसइ ताहे य धम्मकही। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे अ अच्छणए। उवस्सए वत्थए॥ (क १/२०) करणं तु अणुनाए, अणणुन्नाए भवे लहुओ॥ साधु-साध्वियां चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में न रहें। (बृभा १५७४, १५७५) चित्रों के आधार पर सदोष-निर्दोष स्थान क्षेत्रप्रत्युपेक्षक मुनि सबसे पहले आचार्य के लिए तीन तरु गिरि नदी समुद्दो, भवणा वल्ली लयावियाणा य। ता गिरि नदी समहो. भवणा वल्ली लयाविर संस्तारकभूमियों (निवात, प्रवात, निवात-प्रवात) की तथा शेष निद्दोस चित्तकम्मं, पुन्नकलस-सोत्थियाई य॥ साधुओं के लिए रत्नाधिक के क्रम से एक-एक संस्तारकभूमि की तिरिय-मणुय-देवीणं, जत्थ उ देहा भवंति भित्तिकया। प्रत्युपेक्षा कर उन्हें अर्पित करते हैं। सब अपने-अपने स्थान पर सविकार निविकारा, सदोस चित्तं हवइ एयं॥ अपने उपकरणों की गठरी स्थापित करते हैं, उसके बाद धर्मकथी (बृभा २४२९, २४३०) मुनि कथा सम्पन्न कर उपाश्रय में प्रवेश करता है। क्षेत्रप्रत्युपेक्षक मुनि शय्यातर के द्वारा अनुज्ञात भूमि निवेदित करते हैं-उच्चार है जिस प्रतिश्रय में वृक्ष, पहाड़, नदी, समुद्र, भवन, वल्लियों और लताओं के निकुंज तथा पूर्ण कलश, स्वस्तिक आदि मंगल प्रस्रवण-परिष्ठापन, पात्र-प्रक्षालन, निर्लेपन, स्वाध्याय आदि के लिए अमुक-अमुक भूमि अनुज्ञात है। अनज्ञात भमि में कार्य करने वस्तुओं के रूप आलिखित हों, वह प्रतिश्रय निर्दोष है। से भगवान की आज्ञा की आराधना होती है। अननुज्ञात स्थान में जिस उपाश्रय की भित्ति पर देवियों, महिलाओं तथा तिर्यञ्च स्त्रियों के विकार पैदा करने वाले या निर्विकार रूप आलेखित हों, कार्य करने वाला मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। वह उपाश्रय सदोष है। दोण्णि उ पमज्जणाओ, उदुम्मि वासासु ततियमज्झण्णे। वसहि बहुसो पमज्जति, अतिसंघटुं तहिं गच्छे ॥ १६. विषम शय्या में समता (निभा ३१३४) ......."समा वेगया सेज्जा भवेज्जा. विसमा वेगया सेज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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