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________________ आगम विषय कोश - २ अथवा ऐसी स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या में भी रहा जा सकता है, जो पुरुषबहुल हो । वे पुरुष शीलसम्पन्न हों, भीतपरिषद् हों - ऐसे प्रभावशाली पुरुष हों, जिनके कारण परिवार के सदस्य गलत कार्य करने से डरते हों। स्त्रियां शीलसम्पन्न हों। वहां बाल और वृद्ध हों तथा साधु के ज्ञातिवर्ग से सम्बद्ध व्यक्ति हों। ऐसी स्थिति में आधाकर्म शय्या वर्जनीय है । निर्ग्रन्थप्रवचन में किसी वस्तु की सर्वथा अनुज्ञा और सर्वथा निषेध नहीं है। साधक को लाभ के आकांक्षी वणिक् की भांति आय - व्यय की तुलना / समीक्षा कर जहां अधिकतम गुणसम्प्राप्ति हो, उसी का उपयोग करना चाहिए। ० अप्रतिबद्ध शय्या की गवेषणा, प्रतिबद्ध-यतना अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण गीयत्था जयणाए, वसंति तो ...... अद्धाण-वास - सावय- तेणेसु व पासवण मत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिली रूवे । सज्झाए झाणे वा, आवरणे सहकरणे वा ॥ (बृभा २५८९, २६०३, २६११) असईए । दव्वपडिबद्धे ॥ भावपडिबद्धे ॥ मार्ग से गुजरते हुए मुनि पहले तीन बार द्रव्य और भाव से अप्रतिबद्ध उपाश्रय की गवेषणा करें। उसके न मिलने पर गीतार्थ यतना से द्रव्य प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहें । मार्गवर्ती साधुओं को अन्य वसति की प्राप्ति न हो, निरन्तर वर्षा गिर रही हो, ग्राम के बाहर चोर और श्वापदों का उपद्रव हो, तो भाव प्रतिबद्ध वसति में रहा जा सकता है। प्रश्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में मात्रक के माध्यम से प्रश्रवण का परिष्ठापन करे । स्थान प्रतिबद्ध में अन्यत्र जाकर बैठे। रूप प्रतिबद्ध में यवनिका का उपयोग करे। शब्द प्रतिबद्ध उपाश्रय में स्वाध्याय और ध्यान में उपयुक्त रहे, ध्यानलब्धि सम्पन्न न हो तो कानों को अंगुलि आदि से बन्द कर ले । अथवा तीव्र स्वर से उच्चारण करे, जिससे गृहस्थ के शब्द सुनाई न दें। ११. सदोष शय्या से हानि, निर्दोष शय्या दुर्लभ ते सीदितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं । गलइ जतुं तप्पंतं, एव चरित्तं मुणेयव्वं ॥ (बृभा २४६२) ५५३ Jain Education International शय्या साधु दोषपूर्ण वसति के कारण संयमयोगों में विषण्ण हो जाता है। उसका चारित्र राग-रूपी अग्नि से तप्त होने पर उसी प्रकार पिघल जाता है, जैसे अग्नि से तप्त लाक्षा । सिय णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे णो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं तं जहा- छायणओ, लेवणओ, संथारदुवार पिहणओ''''''''' प्रासुक:- -आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लभः, उंछ इति छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः “मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति । ''''' (आचूला २/४४ वृ) प्रासुक - आधाकर्म आदि दोषों से रहित, उंछ-छादन आदि उत्तरकरण के दोषों से रहित तथा एषणीय-मूलकरण- उत्तरकरण के दोषों से रहित शय्या दुर्लभ है। प्राभृतों के कारण शय्या अशुद्ध हो जाती है । जैसे - साधु के उद्देश्य से वसति का छादन और लेपन करना, संस्तारक - भूमि को सम करना, द्वार के कपाट लगवाना आदि । १२. विविक्त शय्या की गवेषणा ''उवस्सयं सइत्थियं सखुडुं सपसुभत्तपाणं णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥ (आचूला २/२०) मुनि स्त्री, बाल, पशु और भक्तपान से युक्त उपाश्रय में स्थान, शय्या और निषद्या न करे । देउलि अणुण्णवणा, अणुण्णविए तम्मि जं च पाउ ''सा प्रायेण ग्रामादीनां बहिर्भवति, साधुभिश्चोत्सर्गतो बहिः स्थातव्यम्, देवकुलिका च विविक्तावकाशा भवति, अतः प्रथमतस्तस्या अनुज्ञापना कर्त्तव्या । ( बृभा १४९६ वृ) मुनि सामान्यतः गांव के बाहर रहे । देवकुलिका प्रायः गांव के बाहर एकांत स्थान में होती है। अतः मुनि सर्वप्रथम उसकी आज्ञा ले। वह सुलभ न हो तो गांव के भीतर उपाश्रय की अन्वेषणा करे, अनुज्ञा ले और प्रायोग्य स्थान में रहे । १३. गृहकार्य का निवेदन : मुनि द्वारा अस्वीकृति जोतिस - णिमित्तमादी, छंदं गणियं व अम्ह साधेत्था । अक्खरमादी डिंभे, गाधेस्सह अजतणा सुणणे ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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