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________________ आगम विषय कोश-२ भाषा मतान्तर-यहां मत का अर्थ दृष्टिभेद है। केवली और श्रुतकेवली ० एकत्वभावना से भावित मुनि लाघव को प्राप्त करता है। की परम्परा का विच्छेद होने के पश्चात् मतान्तर का सूत्रपात होता . श्रुतभावना से भावित मुनि दूसरों में भी स्वाध्याय के प्रति श्रद्धा है। आगम-साहित्य में अनेक मतान्तर उपलब्ध हैं। उपाध्याय पैदा करता है। पौरुषी आदि कालज्ञान के लिए उसे दूसरों की समयसुन्दर ने आगम-साहित्य में सौ दृष्टि-भेदों का संकलन अपेक्षा नहीं रहती। वह श्रुतपरावर्तन के आधार पर उच्छ्वास आदि किया है। ......"यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम के काल का आकलन कर पौरुषी आदि का प्रमाण जान लेता है। में कहीं भी पूर्वापर-विरोध या दृष्टिभेद होना संभव नहीं है, परन्तु ० धृतिबलभावना से भावित मुनि का स्वजन आदि पर ममत्व नहीं सूक्ष्म, दूरस्थ और अंतरित पदार्थों के संबंध में कहीं-कहीं आचार्यों होता। (जिसकी आत्मा भावना-योग से शुद्ध है, वह जल में का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्षज्ञानियों के अभाव में उनका नौका की तरह कहा गया है। वह तट पर पहुंची हुई नौका की निर्णय दुरन्त होने के कारण धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी का भांति सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।-सू १५/५) सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण भाषा-ध्वन्यात्मक, शब्दात्मक तथा संकेतात्मक प्रयोग। कर लेना योग्य है।"-भ १/१६९-१७२ भा) भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम। ७. संक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति १. भाषा के प्रकार जो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ। २. भाषा का स्वरूप सो तव्विहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो॥ ३. भाषा द्रव्यजात (बृभा १२९४) ___ * भाषाद्रव्य अगुरुलघु द्र द्रव्य व्यवहार में साधु होने पर भी जो कान्दी आदि अप्रशस्त | ४. भाषा-अभाषा भावनाओं से अपने को भावित करता है, वह उन भावनाओं के १. भाषा के प्रकार अनुरूप ही कान्दर्पिक आदि देवों की योनि में उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति सर्वथा चारित्रविकल अथवा द्रव्य चारित्र से रहित है, वह सत्या-मृषा-मिश्रा-ऽसत्यामृषाभेदात् चतस्रो भाषाः। तत्र इन देवों के अतिरिक्तं नरक, तिर्यञ्च और मनुष्ययोनि में भी उत्पन्न परेण सह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुनः साधकत्वेन बाधकत्वेन हो सकता है। वा प्रमाणान्तरैरबाधिता या भाषा भाष्यते सा सत्या, सैव प्रमाणैर्बाधिता मृषा, सैव बाध्यमानाऽबाध्यमानरूपा मिश्रा। १.असंक्लिष्ट भावना की निष्पत्ति या तु वस्तुसाधकत्वाद्यविवक्षया व्यवहारपतिता स्वरूपखयावणाआ साहसजआ य लहुया तवा असगा आ मात्राभिधित्सया प्रोच्यते सा पूर्वोक्तभाषात्रयविलक्षणा सद्धाजणणं च परे, कालन्नाणं च नऽन्नत्तो॥ असत्यामषा नाम चतर्थभाषा भण्यते. सा चामन्त्रण्या.....धृतिभावनाभावितस्य स्वजनादिषु असंगः' निर्ममत्वं भवति।" ऽऽज्ञापनीप्रभृतिस्वरूपा। (बृभा ५२३५ की वृ) (बृभा १२८९ वृ) भाषा के चार प्रकार हैं-सत्य, मृषा, मिश्र (सत्यामृषा) साहसं णाम भयं तंण उप्पज्जति। (बृभा १२८९ की चू) और असत्यामृषा (व्यवहार)। असंक्लिष्ट भावनाएं पांच हैं-तपोभावना, सत्त्वभावना, १. सत्यभाषा-जो दूसरे के साथ विप्रतिपत्ति होने पर वस्तु के एकत्वभावना, श्रुतभावना और धृति (बल) भावना। इन पांच साधक-बाधक प्रमाणों से अबाधित भाषा बोली जाती है। भावनाओं से भावित होने पर निम्न गुण प्रकट होते हैं- २. मृषाभाषा-प्रमाणों से बाधित भाषा। ० तपोभावना के अभ्यास से खेद का अपनयन होता है-उपवास आदि ३. मिश्रभाषा-जो प्रमाणों से बाधित भी है, अबाधित भी है। तप करने पर भी वह भूख से खेदखिन्न नहीं होता। ४. असत्यामृषा भाषा-जिसमें वस्तु को सिद्ध करना आदि विवक्षित ० सत्त्वभावना से भावित मुनि भय पर विजय प्राप्त कर लेता है। नहीं है, जो व्यवहार में उपयोगी है, स्वरूप मात्र को प्रकट करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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