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________________ भावना विषयग्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत् किमपरेण मनः पर्यवज्ञानेन ? इति । चरणान्तरव्यामोहो यथायदि सामायिकं सर्वसावद्यविरतिरूपं छेदोपस्थापनीयमप्येवंविधमेव तत् को नामानयोर्विशेषः ? आदिशब्दाद् दर्शनान्तरमतान्तर - वाचनान्तरादिपरिग्रहः । (बृभा १३२१-१३२६ वृ) जो उन्मार्गदेशना, मार्गदूषणा और मार्गविप्रतिपत्ति करता है, स्वयं मूढ होता है और दूसरों को मूढ बनाता है, वह साम्मोही भावना करता है। ४४० ० • उन्मार्गदेशना - ज्ञान आदि पारमार्थिक मार्गरूपों को दूषित नहीं करता हुआ उसके विपरीत धर्ममार्ग की देशना देता है, वह उन्मार्गदेशक है । वह स्व और पर- दोनों के लिए अहितकर है। मार्गदूषणा - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इस त्रिविध परमार्थ मार्ग को स्वमतिकल्पित जाति दूषणों से दूषित करता है, मार्गप्रतिपन्न साधुओं को दूषित करता है, तत्त्वपरिज्ञान से शून्य होने पर भी अपने को पण्डित मानता है, वह पारमार्थिक पथ के विनाश के लिए समुद्यत होता है। यह मार्गदूषणा है। • मार्गविप्रतिपत्ति- जो अतत्त्वज्ञ अपण्डित (सद्बुद्धिरहित) उसी पारमार्थिक मार्ग को असत् दूषणों से दूषित कर निजी मिथ्याविकल्पना से देशतः उन्मार्ग को स्वीकार करता है। जैसे जमाली ने भगवद् वाणी 'क्रियमाणं कृतं' को दूषित कर 'कृतमेव कृतम्' के रूप में स्वीकार किया। यह मार्गविप्रतिपत्ति है । ० मोह - शंका आदि के परिणामों से जिसकी मति उपहत हो जाती है, वह ज्ञानांतर, चरणांतर आदि में तथा परतीर्थिकों की अनेक प्रकार की समृद्धि को देखकर मूढ हो जाता है। ० ज्ञानांतर का अर्थ है - ज्ञानविशेष, उस विषयक व्यामोह, यथापरमाणु आदि समस्त रूपी द्रव्यों का ग्राहक होने से अवधिज्ञान असंख्य प्रकार का है, तब फिर मनः पर्यवज्ञान से क्या प्रयोजन ? ० चरणांतर - चारित्र विषयक व्यामोह, जैसे- सामायिक चारित्र सर्वसावद्यविरति रूप है और छेदोपस्थापनीय चारित्र भी ऐसा ही है, फिर दोनों में क्या अंतर है? इसी प्रकार दर्शनांतर, मतांतर, वाचनांतर आदि में भी वह मूढ हो जाता है। ० परमोहक – जो दूसरे में वास्तविक या काल्पनिक रूप से सन्मार्ग के प्रति चित्तविभ्रम पैदा करता है, वह सम्मोह भावना करता है। यह भावना अबोधिफलदायिनी है। I Jain Education International आगम विषय कोश - २ ( भगवती १ / १७० में ज्ञानमोह विषयक तेरह अंतरों का उल्लेख किया गया है - ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी - अन्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणांतर । प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्वश्रद्धा का प्रश्न नहीं है। यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता । आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञानमोह' शब्द की मीमांसा में लिखा हैज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, वह निश्चित ही मोहनीय कर्म का उदय नहीं है ......... जैन धर्म ग्रन्थ- प्रधान नहीं, पुरुष प्रधान रहा है । इसमें अनेक पुरुषों का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। प्रामाण्य की पांच श्रेणियां बतलाई गई हैं -- केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर। इन श्रेणियों से भिन्न विशिष्ट आचार्य भी सापेक्ष दृष्टि से अनेक तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। ये सापेक्ष प्रतिपादन एक सामान्य मुनि के लिए कांक्षामोहनीयवेदन के हेतु बन जाते हैं। ज्ञानान्तर - ज्ञान के विषय में अनेक भूमिकाएं उपलब्ध थीं। प्रथम भूमिका पांच ज्ञान की है। सिद्धसेन दिवाकर ज्ञान के तीन प्रकारों को ही मान्य करते हैं। उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान से भिन्न नहीं है और मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है। इस प्रकार देवर्धिगणी के समय तक ज्ञान की पृथक्-पृथक् भूमिकाएं बन गई थीं। इसीलिए ज्ञानान्तर को कांक्षामोहनीय के वेदन का एक हेतु माना गया। दर्शनान्तर - दर्शन के चार प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इस विषय में एक मत यह रहा है कि दर्शन के तीन प्रकार ही पर्याप्त हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनइन दोनों में भेदरेखा खींचने का कोई स्पष्ट आधार नहीं मिलता । यह चिन्तन भेद कांक्षामोहनीय के वेदन का हेतु बना है। चारित्रान्तर- भगवान् पार्श्व के शासनकाल में चारित्र के तीन प्रकार थे - सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । भगवान् महावीर के शासनकाल में चारित्र के पांच प्रकारों की निरूपणा की गई ।.... यह अन्तर भी कांक्षामोह के वेदन का हेतु बना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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