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________________ प्रायश्चित्त ४१२ आगम विषय कोश-२ १. द्रव्य प्रतिकुंचना-सचित्त की प्रतिसेवना कर साधु कहे कि मैंने घेप्पंति च सद्देणं, निज्जुत्ती-सुत्त-पेढियधरा य। अचित्त की प्रतिसेवना की है-यह द्रव्यसंबंधी माया है। आणा-धारण-जीते य होंति पभुणो उ पच्छित्ते॥ २. क्षेत्र प्रतिकुंचना-जनपद में प्रतिसेवना कर इस रूप में कहे कि नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमाचारनामकं वस्तु मैंने मार्ग में प्रतिसेवना की है। तावन्मात्रधारिणोऽपि नवपूर्विणः, तथा कल्पधराः कल्प३. काल प्रतिकुंचना-सुभिक्ष में प्रतिसेवना कर कहे कि मैंने व्यवहारधारिणः प्रकल्पो निशीथाध्ययनं तद्धारिणः नियुक्तिर्या दुर्भिक्ष में प्रतिसेवना की है। भद्रबाहुस्वामिकृता, सूत्रपीठिका निशीथकल्पव्यवहारप्रथम४. भाव प्रतिकंचना-स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना कर इस रूप में पीठिका गाथारूपाः तथा आज्ञायां धारणे जीते च य व्यवआलोचना करे कि मैंने ग्लान अवस्था में प्रतिसेवना की है। हारिणः"एते प्रायश्चित्तदाने प्रभवः । (व्यभा ४०३, ४०४ वृ) ० ऋजुता से आलोचना : न्यून प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त देने के लिए अधिकृत हैं-केवलज्ञानी, मन:जे भिक्खू मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी-नौवें पूर्व अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोए- की तृतीय आचारवस्तु के धारक भी नौपूर्वी हैं तथा कल्प, व्यवहार माणस्स दोमासियं॥ (नि २०/१ चू) और निशीथ के ज्ञाता, भद्रबाहुस्वामीकृत नियुक्ति के धारक, निशीथ, जो भिक्ष मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर ऋजुता से कल्प और व्यवहार सूत्रों की पीठिका के धारक, आज्ञाव्यवहारी, आलोचना करता है, वह मासिक प्रायश्चित्त तथा जो मायापूर्वक धारणाव्यवहारी और जीतव्यवहारी। आलोचना करता है, वह दोमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। * प्रकल्पधर प्रायश्चित्तदानार्ह द्र छेदसूत्र __ केनापि गीतार्थेन कारणे अयतनया त्रीन्वारान् बहून्वारान् जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेस वेजो। वा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवितमालोचनाकाले चाप्रति- एवागम-सुतनाणी, सुज्झति जेणं तयं देंति॥ कुञ्चनयालोचितं तस्मै एकमेव मासिकं प्रायश्चित्तं"कारण- अवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसु एवं। प्रतिसेवनायाः कृतत्वात्। अथ प्रतिकुञ्चनयालोचयति, ततो संभवति न सो हेऊ, अत्ता जेणालियं ब्रूया॥ द्वितीयमासो मायानिष्यन्नो गुरुर्दीयते। (व्यभा ३२४ की वृ) (व्यभा ३२६, ३२८) कोई गीतार्थ सकारण अयतना से तीन बार या बहुत बार जो रोग पुरुष की प्रकृति के अनुसार औषध की जितनी मासिक परिहारस्थान प्रतिसेवना कर आलोचना काल में ऋजुता से मात्रा से उपशांत होता है, वैद्य रोगी को उतनी ही मात्रा में औषध आलोचना करता है तो उसे एकमासिक और जो माया से आलोचना देता है। इसी प्रकार आगम-श्रृतज्ञानी गीतार्थ-अगीतार्थ को उतनी करता है, उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। दूसरा मास मात्रा में प्रायश्चित्त देते हैं, जितनी मात्रा से उनकी शोधि होती है। गुरुमास होता है। सूत्रों में विषम प्रतिसेवनाओं के लिए भी तुल्य प्रायश्चित्त जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते असढभावो। प्रतिपादित है। कोई कहे कि सूत्र ही विषम है तो यह कथन ठीक गृहितबलो न सुज्झति, ............. ॥ नहीं है। सूत्र के अर्थकर्ता अर्हत् हैं, वीतराग हैं। उनमें ऐसा कोई (व्यभा ५५७) कारण संभव नहीं है, जिससे वे असत्य कहें। विषम भाषण के जो जिस तप को करने में समर्थ है, वह उसे ऋजुभाव से तीन कारण हैं-राग, द्वेष और मोह। अर्हत् इनसे अतीत होते हैंकरता है तो शुद्ध हो जाता है। अपने वीर्य का गोपन करने वाला रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। शुद्ध नहीं होता। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ? ॥ २५. प्रायश्चित्तदान के अधिकारी दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए। केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न य विसोही॥ चोद्दस-दस-नवपुव्वी, कप्पधर पकप्पधारी य॥ (व्यभा १७२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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