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________________ आगम विषय कोश-२ ४११ प्रायश्चित्त लिए यह अनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त है-ऐसा मित्रवाचक क्षमाश्रमण बड़े काष्ठ को नहीं जला सकती और शीघ्र बुझ जाती है। वही का आदेश (कथन) है। श्लक्ष्ण काष्ठ या छगण आदि के चर्ण में डालने से क्रमशः प्रबल साधु रक्षितगणि क्षमाश्रमण कहते हैं-छह मासिक प्रायश्चित्त का ___ हो जाती है। इसी प्रकार धृति-संहनन से दुर्बल व्यक्ति पुनः पुनः वहन कर लिया हो, केवल छह दिन शेष रह गए हों और उसी छहमासिक तप करता हुआ विषाद को प्राप्त होता है। बीच अन्य छह मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त हो जाए तो वे छह मास स्कन्धाग्नि-बड़े काष्ठ की आग बड़े काष्ठ को जलाने में उन छह दिनों में प्रक्षिप्त कर दिये जाते हैं तथा पूर्व प्रस्थापित के समर्थ होती है। इसी प्रकार धृति-संहनन से सुदृढ़ व्यक्ति छह छह दिन झोषित होते हैं। इस प्रकार बारह मास का प्रायश्चित्त छह मास की पुनः पुनः आरोपणा से विषण्ण नहीं होता। मास में ही वहन कर लिया जाता है-यह अनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त एक माह के शिशु को चार माह के शिशु का आहार देने पर धृति-संहनन से दुर्बल व्यक्ति की अपेक्षा से है। वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है। चार माह के शिशु को एक एवं बारसमासा, छद्दिवसूणा तु जेट्ठपट्ठवणा।... माह के शिशु का आहार देने पर वह दुर्बल हो जाता है। पाश्चात्यं पाण्मासिकं परिपूर्णं दीयते। धृतिसंहनन एक माह के शिशु को अल्प और चार माह के शिशु को बलिष्ठत्वात्, एवं च षण्मासाः षड्भिर्दिवसैयूंनाः पूर्वस्थापिताः प्रचुर आहार देने वाला पक्षपात के दोष से दूषित नहीं होता। दुर्बल पाश्चात्याः परिपूर्णाः षण्मासाः ततः सर्वसंकलनया द्वादश और सबल को शास्त्रोक्त विधि से प्रायश्चित्त देने वाला राग-द्वेष मासाः षड्भिर्दिवसैयूँना भवन्ति। एषा ज्येष्ठा प्रस्थापना के आरोप से मुक्त होता है। दानम्। (व्यभा ४९३ ७) तं दिज्जउ पच्छित्तं, जं तरती सा य कीरती मेरा। कोई मुनि छहमासिक तप प्रायश्चित्त का वहन कर रहा है, जा तीरति परिहरिलं, मोसादि अपच्चओ इहरा॥ केवल छह दिन शेष हैं, अन्य समस्त दिन वहन कर चुका है, इसी जो जत्तिएण सुज्झति, अवराधो तस्स तत्तियं देति ।.... मध्य अन्य छहमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त हो गया हो तो अवशिष्ट (व्यभा ६६०, ६६१) छह दिन झोषित (परित्यक्त) हो जाते हैं। धृति-संहनन की प्रायश्चित्ताह को उतना प्रायश्चित्त देना चाहिए, जितना सबलता के कारण पश्चाद्वर्ती छहमासिक प्रायश्चित्त परिपूर्ण वह वहन कर सके। मर्यादा वैसी करनी चाहिए, जिसका पालन दिया जाता है। पूर्वप्रस्थापित छह दिन न्यून छहमास और पश्चात् किया जा सके। मात्रा से अधिक प्रायश्चित्त देने से गुरु को मृषा आगत परिपूर्ण छह मास-इस प्रकार कुल मिलाकर छह दिन कम दोष तथा आशातना दोष लगता है। शिष्य में आचार्य के प्रति बारह मास हो जाते हैं। यह ज्येष्ठ प्रस्थापना-दान है-यह अविश्वास पैदा हो जाता है। अतः देश, काल और शारीरिक शक्ति निरनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त है। को ध्यान में रखकर आचार्य, जितने प्रायश्चित्त से अपराध की • दुर्बल को प्रायश्चित्त कम क्यों? विशोधि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। चोदेति रागदोसे, दुब्बलबलिते य.......। २४. प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त भिण्णे खंधग्गिम्मि य, मासचउम्मासिए चेडे ॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्या..." (व्यभा ४९४) सच्चित्ते अच्चित्तं, जणवयपडिसेवितं तु अद्धाणे। शिष्य ने जिज्ञासा की-भंते ! दुर्बल व्यक्ति पश्चाद् प्राप्त सुब्भिक्खम्मि दुभिक्खे, हटेण तधा गिलाणेणं॥ छहमासिक प्रायश्चित्त का पर्वप्रस्थापित के शेष रहे छह दिनों में अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते, यया सा प्रतिही वहन कर लेता है आपका दुर्बल के प्रति राग और कुञ्चना। (व्यभा १४९, १५० वृ) बलिष्ठ के प्रति द्वेष परिलक्षित हो रहा है। दोषसेवन कर उसे अन्यथा कहना परिकुंचना है। उसके गुरु ने कहा-शिष्य ! भिन्न-अरणिघर्षण से उत्पन्न आग चार विकल्प हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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