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________________ प्रतिमा ३७८ आगम विषय कोश-२ शब्दों का परिज्ञान होता है, जिससे नानादेशीभाषात्मक सूत्र का जो एकाकीविहारप्रतिमा स्वीकार करना चाहता है, वह परिस्फुट अर्थनिर्णय किया जा सकता है। तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच भावनाओं के अभ्यास ० निष्पत्ति-वाचना आदि द्वारा शिष्यों का निष्पादन। से अपने को परिकर्मित करता है। (भावना-परिकर्म द्र जिनकल्प) ० विहार-प्रतिमा स्वीकार रूप अभ्युद्यत विहार। जैसे लंख (नट) अभ्यास से रज्जु पर भी नृत्य कर सकता ० सामाचारी-एकलविहारप्रतिमा की सामाचारी का परिज्ञान। है। मल्ल व्यायाम आदि से शरीर को परिकर्मित कर प्रतिमल्ल को उल्लिखित सातों द्वार प्रतिमा-साधना में उपयोगी हैं। प्रव्रज्या, __ पराजित करता है। अश्वकिशोर हाथी आदि की निकटता के अभ्यास शिक्षापद और अर्थग्रहण-ये तीनों प्रतिमा-प्रतिपत्ता के नियमतः से युद्ध में भयभीत नहीं होता, वैसे ही तप आदि भावनाओं के पुनः होते हैं, शेष में भजना है। अनियतवास और निष्पत्ति-ये दो द्वार पुनः अभ्यास से प्रतिमाप्रतिपत्ति की योग्यता प्राप्त होती है। आचार्य पद योग्य शिष्य के अवश्य होते हैं, शेष के नहीं होते। गणहरगुणेहि जुत्तो, जदि अन्नो गणहरो गणे अत्थि। प्रतिमाप्रतिपत्ति अभ्युद्यत विहार है ही। इस प्रतिमा की नीति गणातो इहरा, कुणति गणे चेव परिकम्मं ॥ सामाचारी जिनकल्प की सामाचारी से भिन्न है। वह दशाश्रुतस्कंध (व्यभा ७७५) की भिक्षुप्रतिमा नामक सातवीं दशा में प्रतिपादित है। यदि गण में गणधरगणों से युक्त अन्य गणधर हो तो प्रतिमा (द्र भिक्षुप्रतिमा) प्रतिपित्सु आचार्य गण से बाहर रहकर परिकर्म करता है, अन्यथा ० प्रतिमा-प्रतिपत्ता की अर्हता गण में रहता हुआ ही परिकर्म करता है। दढसम्मत्तचरित्ते, मेधावि बहुस्सुए य अयले य। परिचियसुओ उ मग्गसिरमादि जा जे? कुणति परिकम्म। अरइरइसहे दविए, खंता भयभेरवाणं च॥ एसो च्चिय सो कालो, पुणरेति गणं उवग्गम्मि॥ जो जति मासे काहिति, पडिमं सो तत्तिए जहण्णेण। (दशानि ५१) कुणति मुणी परिकमं, उक्कोसं भावितो जाव॥ प्रतिमाप्रतिपत्ता आठ गुणों से युक्त होता है-सम्यक्त्व और तव्वरिसे कासिंची, पडिवत्ती अन्नहिं उवरिमाणं। चारित्र में दृढ रहने वाला, मेधावी, बहुश्रुत, अचल, अरति-रति . आइण्णपतिण्णस्स तु, इच्छाए भावणा सेसे॥ को सहन करने वाला, राग-द्वेष-रहित और अत्यंत भयोत्पादक (व्यभा८००-८०२) दृश्यों को सहन करने वाला। . मुनि श्रुत का अत्यंत अभ्यास हो जाने पर मार्गशीर्ष मास से (आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार एकलविहारप्रतिमा ज्येष्ठ मास पर्यंत परिकर्म करता है। जघन्यतः जो मुनि जितनी संघमुक्त साधना को स्वीकार कर विहार कर सकता है मासिकी प्रतिमा करना चाहता है, वह उतने ही मास तक परिकर्म १. श्रद्धावान् २. सत्यवादी ३. मेधावी ४. बहुश्रुत ५. शक्तिमान करता है। जघन्य पद में इतना ही काल है। उत्कृष्ट पद में जितने ६. कलहमुक्त ७. धृतिमान ८. वीर्यवान। -स्था ८/१ काल में वह आगमोक्त विधि से पूर्ण भावित होता है, उतना भगवान् महावीर ने दो प्रकार की मुनिचर्या का प्रतिपादन उत्कृष्ट काल है। आषाढ़ मास समीप होने से वह वर्षाकाल किया है-गणचर्या और एकाकीचर्या। अगीतार्थ मनि के लिए प्रायोग्य उपधिग्रहण के लिए पुनः गण में आता है। गणचर्या ही सम्मत है। गीतार्थ मुनि बहुश्रुत गुरु की आज्ञा से । एकमासिकी यावत् चातुर्मासिकी प्रतिमा की प्रतिपत्ति उसी एकाकीचर्या भी स्वीकार करते हैं। -आ ६/५२ का भाष्य) वर्ष में होती है, जिस वर्ष में उसका परिकर्म होता है। ० पांच भावनाओं द्वारा परिकर्म (योग्यता प्राप्ति) पंच, षट् और सप्तमासिकी प्रतिमा का परिकर्म अन्य वर्ष में तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य। और प्रतिपत्ति अन्य वर्ष में होती है। तुलणा पंचधा वुत्ता पडिमं पडिवज्जतो॥ जो प्रतिमा की साधना कर चुका है, वह पुनः उस प्रतिमा ..... लखग-मल्ले उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते॥ की साधना करे तो उसके लिए भावना-परिकर्म ऐच्छिक है, (व्यभा ७७७, ७८३) किन्तु अनाचीर्ण प्रतिमा वाले के लिए परिकर्म अनिवार्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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