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________________ आगम विषय कोश-२ ३७७ प्रतिमा ० उपधानप्रतिमा-भिक्षु के विशिष्टतम तप संबंधी बारह प्रतिमाएं की अनाशातना, भक्ति, बहुमान और वर्णवाद करना। तथा उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं दशाश्रुतस्कंध सूत्र में वर्णित हैं। औपचारिक विनय के सात प्रकार हैं। (द्र विनय) ० विवेकप्रतिमा-क्रोध आदि का विवेक। इसके दो भेद हैं वैयावृत्त्य चौदह प्रकार का है-प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, १. आभ्यंतरविवेक-क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म और संसार का उद्देशाचार्य, समुद्देशाचार्य, वाचनाचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, विवेचन-पृथक्करण। इनकी भिन्नता का अनुभव करना। ग्लान, शैक्ष, साधर्मिक, कुल, गण और संघ का वैयावृत्त्य। २. बाह्यविवेक-गण, शरीर और अनेषणीय आहार का विवेक। इस प्रकार विनय के कुल प्रकार-१०+६०+७+१४९१ ० प्रतिसंलीनता प्रतिमा चौथी प्रतिमा है। उसमें श्रोत्रेन्द्रिय आदि होते हैं।-सम ९१/१ वृ) पांचों इन्द्रियों का विषय-निरोध होता है। उसके दो प्रकार हैं- २. एकलविहारप्रतिमा-प्रतिपत्ति से पूर्व इन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा और नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा। पव्वज्जा सिक्खावय, अत्थग्गहणं च अणियतो वासो। ० आठ गुणों से युक्त एकलविहारी भिक्षु की पांचवीं प्रतिमा है। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिती चेव। समाधिप्रतिमा ६६+५-७१ विवेकप्रतिमा १ पव्वजा सिक्खावय, अत्थग्गहणं तु सेसए भयणा। उपधानप्रतिमा १२+११=२३ प्रतिसंलीनताप्रतिमा १ सामायारिविसेसो, नवरं वत्तो उ पडिमाए। इस प्रकार प्रतिमाओं का कुल योग छियानवे (९६) है। प्रथमतस्तावत्प्रव्रज्या भवति, सा च द्विधा धर्मश्रवणतो (एकलविहारप्रतिमा भिक्षुप्रतिमा के अंतर्गत गिनी गई है। इस ऽभिसमागमतश्च। तत्र या आचार्यादिभ्यो धर्मदेशनामाकर्ण्य गणना में कुछ प्रतिमाओं का दो-दो बार उल्लेख हुआ है। यथा- संसाराद्विरज्य प्रतिपद्यते सा धर्मश्रवणतः। या पुनर्जातिस्मरणादिना शय्या आदि प्रतिमाएं आचारचूला में भी हैं, स्थानांग में भी हैं। सा अभिसमागमतः, प्रव्रजितस्य शिक्षापदं भवति। शिक्षा च यवमध्यचन्द्रप्रतिमा आदि स्थानांग में भी हैं, व्यवहार में भी हैं। द्विधा-ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा च। तत्र ग्रहणशिक्षा सूत्रावसाधना के जितने संकल्पबद्ध विशिष्ट प्रयोग हैं, वे सब गाहनलक्षणा। आसेवनाशिक्षा सामाचार्यभ्यसनम्। शिक्षा पदमनन्तरं चार्थग्रहणं भवति, अर्थग्रहणकरणानन्तरं चानियतो प्रतिमा की कोटि में आ सकते हैं। जिनकल्प, यथालंद आदि भी वासो नानादेशपरिभ्रमणं कर्तव्यम् । तदन्तरेण नानादेशीयसाधना के विशिष्ट उपक्रम हैं, किन्तु उन्हें यहां नहीं गिनाया गया शब्दाकौशलेन नानादेशीभाषात्मकस्य सूत्रस्य परिस्फुटरूपार्थहै। यह सब विवक्षासापेक्ष है। निर्णयकारित्वानुपपत्तेः, तदनन्तरं वाचनाप्रदानादिना गच्छस्य एकाकीसाधना के संदर्भ में त्रिविध प्रतिमा का उल्लेख है- निष्पत्तिर्निष्पादनं कर्त्तव्यम्। तदनन्तरं विहारोऽभ्युद्यतो विहारो १. एकाकीविहारप्रतिमा २. जिनकल्पप्रतिमा ३. मासिकीआदि ..."करणीयः।..."प्रव्रज्या“सामाचारीति सप्त द्वाराणि प्रतिमाभिक्षुप्रतिमाएं।-स्था ८/१ की वृ यामुपयोगीनि"अनियतवासनिष्पत्तिलक्षणद्वारद्विके भजना... समवायांग में दसरों के वैयावृत्त्यकर्म की इक्यानवे प्रतिमाएं आचार्यपदार्हस्तस्य नियमादिदंद्वारद्वयमस्ति, शेषस्य तु नास्तीत्यर्थः। निर्दिष्ट हैं। इन प्रतिमाओं के नाम अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। विहारः पुनः प्रतिमाप्रतिपत्ति-लक्षणोऽस्त्येव सामाचार्या अपि वृत्तिकार ने संभावित रूप में इक्यानवे प्रतिमाओं का उल्लेख किया जिनकल्पिकसामाचारीतो विशेषोऽस्ति""दशाश्रुतस्कन्धे भिक्षहै-दर्शनगुण से विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति दस प्रकार का शुश्रूषा प्रतिमाध्ययने प्रतिपादितः॥ (व्यभा ७७४/१, २ वृ) विनय होता है-सत्कार, अभ्युत्थान, सम्मान, आसनाभिग्रह, आसन- ० प्रव्रज्या-आचार्य आदि से धर्मश्रवण कर अथवा जातिस्मरण अनुप्रदान, कृतिकर्म, अंजलिप्रग्रह, अभिमुखगमन, स्थिरवास वालों आदि से अभिसमागत (संबुद्ध-विरक्त) हो दीक्षित होना। की पर्युपासना करना और पहुंचाने जाना। ० शिक्षापद-सूत्रअवगाहन रूप ग्रहण शिक्षा और सामाचारी अनाशातना विनय साठ प्रकार का है-तीर्थंकर, धर्म, आचार्य, अभ्यासरूप आसेवन शिक्षा। वाचक, स्थविर, कुल, गण, संघ, सांभोजिक, क्रिया, मतिज्ञान, ० अर्थग्रहण-सूत्रों का अर्थपरिज्ञान। श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान-इन पन्द्रह ० अनियतवास-नाना देशों में भ्रमण। देशाटन से नानादेशीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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