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________________ आगम विषय कोश - २ लोइय लोउत्तरियं दाणफलं तु दुविधं समासेणं । लोइयणेगविधं पुण, लोउत्तरियं इमं तत्थ ॥ अण्णे पाणे भेसज्ज -पत्त-वत्थे य सेज्ज संथारे । भोज्जाविधी पाणारोगे, भायण भूसा गिहा सयणा ॥ अथवा वि समासेणं, साधूणं पीतिकारओ पुरिसो । इह य परत्थ य पावति, पीतीओ पीवरतरीओ ॥ ( निभा ९९३ - ९९६) भिक्षु स्वयं दान का फल बताकर अथवा गृहस्थ और अन्यतीर्थिक द्वारा दानफल कहलवाकर पात्र का उत्पादन करता है - यह लव - गवेषित है और भिक्षु के लिए ऐसा करना विहित नहीं है। दान के दो प्रकार हैं ० लौकिक दान - गोदान, भूमिदान, भोजनदान आदि । लोकोत्तर दान - अन्न आदि । सप्तविध दान की सात परिणतियां हैं o दान अन्नदान पानदान भैषजदान विधिप्रवर्तन भोज्यविधि पानकविधि आरोग्यविधि ३७१ पात्रदान भाजनविधि वस्त्रदान विभूषाविधि शय्यादान विविध गृह शय्याविधान संस्तारकदान जो भक्तपान आदि के द्वारा साधुओं में प्रीति उत्पन्न करता है, वह इहलोक और परलोक में सर्वाधिक प्रीति प्राप्त करता है। १९. इन्द्रमह, मृत्युभोज आदि में भिक्षा अग्राह्य भिक्खू असणं समवा-एसुवा, पिंड - णियरेसुवा, इंद-महेसु वा, खंद-महेसु वा विरूवरूवेसु महामहेसु मासु, बहवे समण-माहण- अतिहि किविण - वणीम " परिएसिज्जमाणे पेहाएनो पडिगाहेज्जा | Jain Education International अह पुण एवं जाणेज्जा - दिण्णं जं तेसिं दायव्वं ....... ... पुरे संखडिं वा, पच्छा-संखडिं वा, संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए ॥ ( आचूला १/२४, २५, २९ ) भिक्षु अशन आदि को गोष्ठी, मृत्युभोज, इन्द्रमह, स्कन्दमह पिण्डैषणा आदि विविध महोत्सवों के समय गृहस्वामी द्वारा बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को परोसते हुए देखकर उसे ग्रहण न करे। यदि ऐसा जाने -उन अतिथि, कृपण आदि के लिए जो दातव्य था, वह दे दिया गया है, तत्पश्चात् मिलने पर ग्रहण करे । मुनि पूर्वसंखडी (विवाहभोज आदि) या पश्चात्संखडी (मृत्युभोज) में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने के लिए पर्यालोचन न करे । २०. सचित्त लशुन आदि अकल्पनीय .... लसुणं वा, लसुण-पत्तं वा, लसुण-नालं वा, लसुणकंदं वा, लसुण-चोयगं वा - अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं - अफासुयं अणेसणिजजं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाज्जाकणं वा, कण-कुंडगंवा, कण-पूयलियं वा, चाउलं वा, चाउल-पिट्टं वा, तिलं वा, तिल-पिट्टं वा, तिल - पप्पडगं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं ... णो पडिगाहेज्जा ॥ ( आचूला १/११७, ११९) लसुन (लहसुन), लसुन पत्र, लसुन-नाल, लसुन - कंद, लसुन की छाल अथवा अन्य इस प्रकार की अपक्व और शस्त्र से अपरिणत वनस्पतिशालि आदि की कणिका, चावलों की भूसी (कुक्कुस), कणिका मिश्रित पूपलिका, चावल, चावल का पिष्ट, तिल, तिल का पिष्ट, तिलपपड़ी अथवा इस प्रकार का अन्य कण आदि अपक्व और शस्त्र से अपरिणत हो, भिक्षु उसे अप्रासुक और अनेषणीय मानता हुआ मिलने पर भी न ले । २१. प्राप्त भिक्षा विषयक पृच्छा से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहेत्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धंखद्धं दलाति । माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता वएज्जा आउसंतो! समणा! संति मम पुरे - संथुया वा, पच्छा-संथुया वा, तं जहा- आयरिए वा, झ वा अवियाई एएसिं खद्धं खद्धं दाहामि । 'से णेवं' वयंतं परो वएज्जा - कामं खलु आउसो ! अहापज्जत्तं णिसिराहि । जावइयं - जावइयं परो वयइ, तावइयं - तावइयं णिसिरेज्जा | सव्वमेयं परो वयइ, सव्वमेयं णिसिरेज्जा । (आचूला १/१३०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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