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________________ आगम विषय कोश--२ ३२७ परिषद् ४. लोकोत्तर परिषद् के प्रकार रत्नों के तुल्य हैं, जो सुखप्रज्ञापनीय तथा विनय आदि गुणों से . ५. सिंह-वृषभ-मृग-परिषद् समृद्ध हैं, जो कुसिद्धांतों से अभावित हैं और स्व-सिद्धांतों के सार * यात्रापथ में वृषभ के कर्त्तव्य द्र विहार को भी जिन्होंने ग्रहण नहीं किया है, जो अक्लेशकारी हैं तथा * चतुर्-षट्-अष्टकर्णा परिषद् द्र आलोचना षट्कोटिशुद्ध (छहों कोणों से परिशुद्ध) वज्र की तरह गुणों के ६. बाह्य-आभ्यंतर परिषद् निधान हैं, वे अज्ञपरिषद् के सदस्य हैं। ७. भीतपरिषद ३. दुर्विदग्ध परिषद्-इसके तीन प्रकार हैं१. परिषद् के प्रकार : ज्ञ-अज्ञ-दुर्विदग्ध १. किंचित्मात्रग्राही-इस परिषद् का व्यक्ति कुछ जानता है और जाणंतिया अजाणंतिया य तह दुव्वियड्डिया चेव। उसी के आधार पर बोलता है, दूसरों को बोलने का अवकाश नहीं तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणत्तगं वोच्छं॥ देता। वह पराजय से भी लज्जित नहीं होता और उच्च स्वर से गुण-दोसविसेसन्नू, अणभिग्गहिया य कुस्सुइमतेसु। बोलकर विजय चाहता है। सा खलु जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा॥ २. पल्लवग्राही-जो किसी भी विषय में परिपूर्ण नहीं है, वह खीरमिव रायहंसा, जे घोट्टंति उ गुणे गुणसमिद्धा। अनेक विषयों के अल्पज्ञान के कारण ग्रामीणों में विद्वान् माना जाता दोसे वि य छडूंता, ते वसभा धीरपुरिस त्ति॥ है। पराजित होने के भय से वह किसी को कुछ पूछता नहीं और जे होंति पगयमुद्धा, मिगछावग-सीह कुक्कुरगभूया। अपने पांडित्य के गर्व से पवन-पूरित मशक की भांति फूला नहीं रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा॥ समाता। यह पल्लवग्राही परिषद् है। जे खलु अभाविया कुस्सुतीहिँ न य ससमए गहियसारा। ३. त्वरितग्राही-अवसर पर अंटसंट बोलकर अपना पांडित्य प्रकट अकिलेसकरा सा खलु, वयरं छक्कोडिसुद्धं वा॥ करने वाली परिषद् । एक व्यक्ति ने व्याकरण के कुछ सूत्रों को याद किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। कर स्वयं को वैयाकरण के रूप में उपस्थापित कर दिया। एक बार दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा॥ एक पंडित वहां आया। दोनों मिले। ग्रामवासी वैयाकरण ने पूछानाऊण किंचि अन्नस्स, जाणियव्वे न देति ओगासं। काग को क्या कहा जाता है ? उसने कहा-काकः । दुर्विदग्ध न य निज्जितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण॥ पंडित ने कहा-सारे लोग काक ही कहते हैं फिर व्याकरण का न य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेण। क्या प्रयोजन ? मैं तो 'क्रीकाक' कहता हूं। वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लगवियड्ढो॥ * वाचनायोग्य परिषद, योग्य-अयोग्य श्रोता द्र श्रीआको १ परिषद दरहियविज्जो पच्चंतनिवासो, वावदूक कीकाको। * बारह प्रकार की परिषद श्रीआको समवसरण खलिकरण भोइपुरतो, लोगुत्तर पेढियागीते॥ २. परिषद के प्रकार : लौकिक-लोकोत्तर (बृभा ३६४-३७२) परंत पूरंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव। परिषद् के तीन प्रकार हैं पंचविहा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव॥ १. ज्ञपरिषद्-गुणों और दोषों को जानने वाली, कुतीर्थिकों के (बृभा ३७८) सिद्धांतों से अनभिगृहीत, गुणों में यत्नशील और अगुणों का वर्जन करने वाली परिषद् ज्ञपरिषद् कहलाती है। इसके सदस्य गुणों से परिषद के दो प्रकार हैं-लौकिक परिषद और लोकोत्तर समृद्ध तथा दोषों का परित्याग करने वाले होते हैं। जैसे राजहंस परिषद। इन दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं-परयन्ती, छत्रवती क्षीर का आस्वादन करते हैं, वैसे ही जो गुणों का आस्वादन करते (छत्रांतिका), बुद्धि, मंत्री और राहस्यिकी। हैं, वे गीतार्थ धीरपुरुष अधिकृत अध्ययन के योग्य होते हैं। ३. लौकिक परिषद् के प्रकार २. अज्ञपरिषद्-जो प्रकृति से भद्र हैं अर्थात् जिनमें मृगशावक, पूरंतिया महाणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा बितिया। सिंहशावक, कुक्कुरशावक जैसा भोलापन है. जो असंस्थापित समयकुसला उ मंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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