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________________ आगम विषय कोश-२ २८९ तीर्थंकर मानसिक एवं वाचिक प्रश्नों का समाधान प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार ह्रद में सहज अचित्त जल था, ह्रदस्वामी १९. तीर्थंकर के अतिशय अनुधर्मता से मुक्त द्वारा अनुज्ञात था। समभूमि वाली, बिल आदि से रहित सहज ."लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण ते वज्जा॥ अचित्त स्थण्डिलभूमि वहां थी। किन्तु तिल, पानी और कामंखलुअणुगुरुणो, धम्मा तह विहुन सव्वसाहम्मा। स्थण्डिल-ये तीनों ही शस्त्र से उपहत नहीं थे। अनेक साधु गुरुणो जं तु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे॥ भूख-प्यास से तथा अनेक साधु तृतीय पौरुषी में आहार करने (बभा ९९५, ९९६) के पश्चात् उत्सर्ग की बाधा से पीड़ित हो दिवंगत हो गए। फिर यद्यपि यह तथ्य मान्य है कि लोकोत्तर धर्म अनगरु भी अशस्त्रोपहत ग्रहण के प्रसंग को टालने के लिए भगवान् ने हैं-जैसा पूर्वगुरुओं ने आचरण किया है, वैसा ही आचरण उन तीनों कल्पनीय वस्तुओं की भी अनुज्ञा नहीं दी। उन तीनों पश्चाद्वर्ती गुरु-शिष्यों को करना चाहिए, किन्तु उस आचीर्ण भविष्य में होने वाले मुनि कहेंगे कि जब तीर्थंकर ने में भी देशसाधर्म्य ही करणीय है, सब प्रकार की समानता भी ऐसी वस्तुएं ग्रहण की हैं तो हम क्यों नहीं लें-इस करणीय नहीं है। जैसे-तीर्थंकर प्राभृतिका-देवकृत समवसरण भावना से वे अशस्त्रोपहत भी ग्रहण कर लेंगे। व्यवहारनय आदि अतिशयों के उपजीवी होते हैं-यह तीर्थंकरों का जीतकल्प की बलवत्ता ख्यापित करने के लिए भगवान ने उस प्रसंग में है, अतः इस विषय में अनुधर्मता नहीं होती है। कुछ भी ग्रहण नहीं किया। प्रमाणस्थ पुरुषों के लिए यह २०. तीर्थंकरों को भी व्यवहार मान्य : उदायन-प्रव्रज्या युक्तियुक्त है। सगड-बह-समभोमे, अविय विसेसेण विरहियतरागं। मुनि शस्त्र से अनुपहत वस्तु ग्रहण न करे--यह तह वि खलु अणाइन्नं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स॥ तीर्थ का अनुधर्म है। वक्कंतजोणि थंडिल, अतसा दिन्ना ठिई अविछहाए। २१. एक क्षेत्र में रहने का काल तह वि न गेण्हिसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए॥ ."अट्ठ गिम्ह-हेमंतिए मासे गामे एगराइए नगरे एमेव य निज्जीवे, इहम्मि तसवज्जिए दए दिन्ने। पंचराइए. (दशा ८ परि सू ८०) समभोम्मे य अवि ठिती, जिमिता सन्नान याऽणुन्ना॥ भगवान महावीर हेमंत और ग्रीष्म के आठ महीनों ""भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगराद् में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि से अधिक नहीं उदायननरेन्द्रप्रव्राजनार्थं सिन्धुसौवीरदेशवतंसं वीतभयं नगरं ठहरते थे। प्रस्थितः तीर्थकरेणापि गृहीतम् इति मदीयमालम्बनं कत्वा मत्सन्तानवर्तिनः शिष्या अशस्त्रोपहतं मा ग्राहिषः २२. महावीर के वर्षावास (पावस स्थल) इति भावात्, व्यवहारनयबलीयस्त्वख्यापनाय भगवता न ...भगवं महावीरे अट्ठियगामं नीसाए पढमं तु प्रमाणस्थपुरुषाणाम्।। अंतरावासं"चंपं च पिट्टिचंपं च नीसाए तओवेसालिं (बभा ९९७-९९९) नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस"रायगिहं नगरं नगार वाणियगाम च नासाए दुवालस" भगवान महावीर ने उदायन नप को प्रव्रजित करने के नालंदं च बाहिरियं नीसाए चोद्दस""छ मिहिलाए, दो लिए राजगृह नगर से सिन्धु-सौवीर देश के अवतंसभूत भद्दियाए, एगं आलभियाए, एगं सावत्थीए, एगं पणियवीतभयनगर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में जहां भगवान भूमीए एगं पावाए मज्झिमाए 'अपच्छिमं अंतरावासं रुके, वहां तिल से भरे शकट थे, जिनमें बिना शस्त्र-प्रयोग के वासावासं उवागए। (दशा ८ परि सू ८३) सहज आयुक्षय से ही तिल अचित्त हो गए थे। वे अचित्त भगवान महावीर ने तेरह स्थानों में कुल बयालीस भूमि पर स्थित थे, त्रस जीवों से भी रहित थे, शकट-स्वामी चातुर्मास किए, उनमें बारह छद्मस्थ अवस्था में और तीस द्वारा अनुज्ञात थे। केवली अवस्था में किए थे। ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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