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________________ जीवनिकाय २६६ आगम विषय कोश-२ स्पर्श से, गीतश्रवण से प्रफुल्लित होती हैं), जो मनुष्य की तरह जन्म, वृद्धि और वृद्धत्व से युक्त हैं, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं। उनका जीवत्व असंदिग्ध है। • पृथ्वीकाय-प्रवाल, लवण, उपल, पर्वत आदि में समान- जातीय अंकुर पैदा होते हैं, उनकी परिवृद्धि होती है, अतः पृथ्वीकाय सजीव है। ० अपकाय-अण्डे का प्रवाही रस सजीव होता है। गर्भकाल के प्रारंभ में मनुष्य तरल होता है, वैसे ही पानी तरल है। अनुपहत अप्काय कलल की तरह द्रव होने से सजीव है। ० तेजस्काय-जुगनू का प्रकाश और मनुष्य के शरीर में ज्वरावस्था में होने वाला ताप जीवसंयोगी है, वैसे ही अग्नि का प्रकाश और ताप जीवसंयोगी है। तेजस्काय उष्णधर्मा है। ० वायुकाय-वायु में अनियमित स्वप्रेरित गति होती है, अतः वह सचेतन है। ० वनस्पति के प्रकार : प्रत्येक, साधारण (अनंत) पत्तेगे साहारण, (निभा २५४) वनस्पति के दो प्रकार हैं१. प्रत्येकशरीर-परीतकायिक, जिसके एक शरीर में एक जीव होता है। २. साधारणशरीर-अनंतकायिक, जिसके एक शरीर में अनंत जीव होते हैं। (प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक के वृक्ष, गुल्म आदि बारह भेद हैं, जिनके अनेक नामों का तथा साधारण- शरीरबादर-वनस्पतिकायिक वर्ग में इकसठ नामों का उल्लेख प्रज्ञापना सूत्र १/३३-४८ में है। एक शरीर में अनंत जीवों के साथ रहने की प्रवृत्ति को परिभाषित करते हुए उस शरीर को निगोद तथा उन जीवों को निगोदजीव कहा जाता है। वे जीव एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं, एक साथ ही श्वास-उच्छ्वास व आहार लेते हैं। ऐसा व्यवहार अन्य किसी भी जीव का नहीं है। यह अभिन्नता औदारिक शरीर की अपेक्षा से बतलाई गई है। आत्म-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से इनके तैजस और कार्मण शरीर व्यक्तिगत होते हैं। ये जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं। अतः यह जान लेना आवश्यक है कि ये वनस्पति के जीव स्थूल वनस्पति से नितांत भिन्न हैं। ये सूक्ष्म निगोद के जीव जैन विज्ञान की दृष्टि से जब अव्यवहार राशि से उत्क्रमण या उद्वर्तन करते हैं, तो वे स्थूल वनस्पति में विकास करते हैं। यह परिवर्तन ऐसी स्थिति में होता है, जब लोक में किसी प्रकार के संतुलन में परिवर्तन होता है। जब कोई जीव मोक्ष प्राप्त करता है, तो संसार के जीवों के संतुलन-हेतु अव्यवहार राशि के जीव उत्क्रमण करते हैं। जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जाते हैं। इस उद्वर्तन के सहयोगी कारण ये हैं-१. चेतना के परिणामों की भिन्नता। २. लेश्याओं का परिवर्तन होना। ३. काललब्धि। पारिभाषिक शब्दावलि में अनादिनिगोद, नित्यनिगोद या अनादिवनस्पति को अव्यवहारराशि कहा जाता है। निगोद के दो प्रकार होते हैं-सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद। जो जीव एक बार अव्यवहारराशि से व्यवहारराशि में आ जाता है, फिर उसकी राशि में परिवर्तन नहीं होता। वह सूक्ष्म निगोद में जाने पर भी व्यवहारराशि में ही रहता है। ...जो जीव अव्यवहारराशि से व्यवहारराशि में आकर अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह प्रत्येक योनि में अनंत बार पैदा हो चुका है। जो जीव अव्यवहारराशि से निकलकर शीघ्र मुक्त हो जाता है, उसके लिए असकृत् (अनेक बार) का नियम है। वह एकाधिक बार जन्म लेकर मुक्त हो जाता है। जैसे मरुदेवी माता के संबंध में उल्लेख है कि उन्होंने सूक्ष्म निगोद से निकल कर दूसरे जन्म में ही मोक्ष पा लिया।-भ २/६ का भाष्य) अनंत वनस्पति के लक्षण गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं। जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चण्णघणो भवे। पुढविसरिसेण भेएणं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसई। अणंतजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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