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________________ आगम विषय कोश-२ २६१ जीवनिकाय केइ भणंति-उक्कुडुओ चेव णिहाइओ सुवइ ईसिमेत्तं भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट ततियजामे। (निभा ५७९३ की चू) होकर परीत-संसारी हो जाते हैं।-उ ३६/२६० जिनकल्पी उकडू आसन में ही रहते हैं और प्रायः जिनवचन-जिनशासन अमृत तुल्य औषध है। उससे धर्मजागरिका से जागृत रहते हैं। एक अभिमत के अनुसार वे विषयसुख का विरेचन, जरा-मरण और व्याधि का हरण तथा नींद आने पर रात्रि के तृतीय प्रहर में थोड़े समय के लिए __ सब दुःखों का क्षय होता है।-मूला २/९५) उकडू आसन में ही नींद लेते हैं। जीत व्यवहार-आगम में अनिर्दिष्ट प्रायश्चित्त का जिनशासन-निग्रंथ-प्रवचन। प्रयोजनवश संविग्न गीतार्थ द्वारा प्रवर्तन और बहुतों के "इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे अणत्तरे पडिपणे द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन। द्र व्यवहार केवले संसुद्धे णेआउए सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे जीवनिकाय-पृथ्वीकाय आदि जीवों के छह वर्ग। निजाणमग्गे निव्वाणमग्गे अवितहमविसंधी सव्व दुक्ख १. छह जीवनिकाय प्पहीणमग्गे। इत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति ____* छहजीवनिकाय-निरूपक द्र तीर्थंकर परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।" (दशा १०/३२) २. पृथ्वी आदि की संवेदनशीलता यह निग्रंथ प्रवचन-जिनशासन सत्य, अनुत्तर, प्रतिपूर्ण, ३. पृथ्वी आदि का शरीरपरिमाण अद्वितीय, पवित्र, मोक्ष तक पहुंचाने वाला एवं अंतःशल्य को ४. स्नेह ( अप्काय)-वर्षण का काल काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, निर्याण का ० कृष्णराजि-तमस्काय मार्ग और निर्वाण का मार्ग है। अवितथ, अविच्छिन्न और सब ० जल में वनस्पति की नियमा दुःखों के क्षय का मार्ग है । इस निग्रंथ प्रवचन में स्थित जीव ५. अग्नि के लक्षण सिद्ध हो जाते हैं, प्रशांत हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वाण ६. अग्नि में वायु की नियमा ७. अग्निप्रज्वालक बहुकर्मी को प्राप्त हो जाते हैं और सब दुःखों का अंत कर देते हैं। ८. वायुकाय का शस्त्र जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। ९. वायुकायिक हिंसा के स्थान तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं॥ १०. वनस्पति आदि की सजीवता (बृभा ४५८४) ० वनस्पति के प्रकार : प्रत्येक, साधारण (अनंत) जैसा तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा दूसरों के लिए ० अनंत वनस्पति के लक्षण चाहो। जिसे तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के ० प्रत्येक वनस्पति के लक्षण लिए भी मत चाहो-इतना ही जिनशासन है। ११. वृक्ष के प्रकार ० वृक्ष के दस अंग जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणताणं। १२. बीज : परीत-अनंत सक्का हु साहुमझे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ ० मूल-अग्र-प्रलम्ब (व्यभा ४३५१) १३. आहार में वनस्पति की प्रधानता जिनवचनों का माधुर्य अपरिमित होता है, वे अग्नि में * उत्पल आदि से पित्त आदि का शमन * ब्राह्मी से मेधा-विकास घृताहुति की भांति कानों को तृप्त करते हैं। जो साधुओं के द्र चिकित्सा पास उन वचनों को सुनते हैं, वे संसारसमुद्र तर सकते हैं। १४. आम के प्रकार : पक्व-अपक्व-मीमांसा |१५. पृथ्वी आदि के अचित्त होने के हेतु (जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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