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________________ जिनकल्प जनकल्पी के दो प्रकार हैं- पाणिपात्र और पात्रधारी । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- सप्रावरण और अप्रावरण। उनके केवल औधिक उपधि होती है, उसके आठ विकल्प हैं१. दो - रजोहरण और मुखवस्त्र। यह अप्रावरण पाणिपात्र की जघन्य उपधि है । सप्रावरण पाणिपात्र के तीन विकल्प हैं२. तीन - रजोहरण, मुखपोतिका, एकसौत्रिक प्रावरण। ३. चार- रजोहरण, मुखपोतिका, सूती कम्बल, ऊनी कम्बल । ४. पांच - रजोहरण, मुखपोतिका, दो सूती कम्बल, एक ऊनी कम्बल । ५. नौ- रजोहरण, मुखपोतिका तथा पात्रसंबंधी सात उपकरण - ये अप्रावरण पात्रधारी जिनकल्पी के होते हैं। सप्रावरण पात्रधारी के तीन विकल्प हैं६. दस - उपर्युक्त नौ तथा एक सूत्रमय कल्प। ७. ग्यारह - उपर्युक्त नौ तथा दो सौत्रिककल्प | ८. बारह - उपर्युक्त नौ तथा तीन सौत्रिक कल्प । अथवा अप्रावरण जिनकल्पी की उपधि के दो विकल्प हैं- दो और नौ । प्रावरणवर्जित को विशुद्ध जिनकल्पी कहा गया है। १७. प्रावरण - विधि ******** "संडास सत्थिए ... संडासछिड्डेण हिमादि एति, गुत्ता वऽगुत्ता विय तस्स सेज्जा । हत्थेहिसो सोत्थिकडेहिघेत्तुं, वत्थस्स कोणे सुवई व झाती ॥ जिनकल्पिकस्योत्कुटुकनिविष्टस्य जानुसंदंशकादारभ्य पुतौ पृष्ठं च छादयित्वा स्कन्धोपरि यावता प्राप्यते एतावत् तदीयकल्पस्य दैर्घ्यप्रमाणम्, अयं च संदेशक उच्यते । तथा तस्यैव कल्पस्य द्वावपि पृथुत्वकर्णौ हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहुशीर्षे यावत् प्राप्येते, तद्यथादक्षिणेन हस्तेन वामं बाहुशीर्षं वामेन दक्षिणम्, एष द्वयोरपि कलाचिकयोर्हृदये यो विन्यासविशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते, एतत् पृथुत्वप्रमाणमवसातव्यम् । (बृभा ३९६७, ३९६८ वृ) जिनकल्पिक के प्रावरण के दो रूप हैं- संदंशक तथा स्वस्तिक । जो कल्प उत्कुटुक आसन में बैठे हुए मुनि के जानु संदेश से प्रारम्भ होकर नितंब और पीठ को आच्छादित करते हुए T Jain Education International आगम विषय कोश- २ कंधे के ऊपर आ जाता है, इसे संदंशक कहा जाता है। यह कल्प की लम्बाई का प्रमाण है। उसी कल्प पृथुल के दोनों छोरों को हाथों से पकड़कर भुजाओं के ऊपर तक लेने से - दाएं हाथ से वाम बाहुशीर्ष और वाम हाथ से दाएं बाहुशीर्ष को प्राप्त करने से हृदय पर जो विन्यास विशेष होता है, वह स्वस्तिकाकार होने से स्वस्तिक कहलाता है। यह कल्प की चौड़ाई का प्रमाण है। २६० जिनकल्पिक मुनि की वसति कपाटयुक्त अथवा खुली भी हो सकती है, अतः संदंशक-छिद्र से शीतवायु आदि का प्रवेश हो सकता है। उससे रक्षा के लिए वह स्वस्तिककृत हाथों से वस्त्र के दोनों कोणों से ग्रहण कर उत्कुटुकासन में ही सोता है अथवा ध्यान करता है। १८. जिनकल्पी - स्थविरकल्पी का संस्तारक अंगुटु पोरमेत्ता, जिणाण थेराण होंति संडासो ।' संथारुत्तरपट्टी, पकप्प कप्पो तु अत्थुरणवज्जो । तिप्पमितिं च विकप्पो, णिक्कारणतो य तणभोगो ॥ पदेसिणीए अंगुट्ठपोरट्ठिताए जे घेप्पंति तत्तिया जिणकप्पियाण घेप्यंति । पदेसिणिअंगुट्टअग्गमिलिएसु संडासो | थेराण संडासमेत्ता घेप्पंति ।.....जिणकप्पियाण अत्थुरणवज्जो कप्पो, ते ण सुवंति । उक्कुडुया चेव अच्छंति । ( निभा १२२७, १२३० चू) जिनकल्पी अंगुष्ठ के पर्व पर प्रतिष्ठित प्रदेशिनी (तर्जनी) का जितना अपांतराल है, उतने प्रमाण में तृण ग्रहण करते हैं । प्रदेशिनी और अंगुष्ठ का अग्र भाग मिलने पर संडास (संदंश) कहलाता है। स्थविरकल्पी संडास मात्र तृण ग्रहण करते हैं । जिनकल्पी के आस्तरणवर्जित कल्प होता है, क्योंकि वे सोते नहीं हैं, उत्कुटुकासन में ही रहते हैं । स्थविरकल्पी संस्तारक पर उत्तरपट बिछाकर सोते हैं - यह प्रकल्प है । वे तीन आस्तरण करते हैं या निष्कारण तृणभोग करते हैं - यह विकल्प है। • उत्कुटुकासन : निद्रा - जागरण सो पण उक्कुडुतो चेव अच्छइ प्रायो जग्गति य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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