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________________ छेदसूत्र अइरहस्सधारए पारए य असढकरणे तुलोवमे समिते । कप्पाणुपालणा दीवणा य आराहणा छिण्णसंसारे ॥ (निभा ६७०२, ६७०३) त्रिविध व्यक्ति निशीथवाचना के अयोग्य होते हैं० भिन्नरहस्य- जो अपवादपदों को अगीतार्थ को बताता है । ० निश्राकारक - जो निशीथ की निश्रा में अपवाद सेवन के लिए दूसरों को भी प्रेरित करता रहता है। ० मुक्तयोगी - जो ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप-नियम-संयम संबंधी - योगों में प्रवृत्त नहीं होता । ऐसा शिष्य तथा उसको वाचना देने वाले गुरु- दोनों षड्विध गतियों (छह जीवनिकायों) से गहन संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं। इससे विपरीत, जो शिष्य गहन रहस्यों को जीवनपर्यंत धारण करने में समर्थ है, जो किसी भी क्रिया में माया का प्रयोग नहीं करता, जो तुलासम (निष्पक्ष ) और पांच समितियों से समित है - ऐसा शिष्य तथा ऐसे शिष्य को निशीथ की वाचना देने वाले आचार्य भी अपने कल्प ( आचार - मर्यादा) का अनुपालन करते हैं, जिनशासन को संज्वलित करते हैं, मोक्ष की आराधना करते हैं और संसार - श्रृंखला को छिन्न कर डालते हैं। १७. निशीथपीठिका के अयोग्य योग्य अबहुस्सुते च पुरिसे, भिण्णरहस्से पइण्णविज्जते । णीसाणपेहए वा, असंविग्गे दुब्बलचरित्ते ॥ एतारिसंमि देंतो, पवयणघातं च दुल्लभं बोहिं । जो दाहिति पाविहिती, तप्पडिपक्खे तु दातव्वो ॥ ( निभा ४९५, ४९६) सात प्रकार के व्यक्ति निशीथ पीठिका की वाचना के अयोग्य हैं • अबहुश्रुत - जिसने प्रकल्पाध्ययन नहीं पढ़ा अथवा जिसने निशीथ के पूर्ववर्ती सूत्रों को नहीं सुना हो । • पुरुष - जो अपरिणामी या अतिपरिणामी हो । ० भिन्नरहस्य - जो रहस्यों को धारण करने में समर्थ न होअगीतार्थ के समक्ष अपवादपदों की चर्चा करता हो । ० प्रकीर्णविद्य - जो अदृष्टभावों को जिस किसी को ( श्रावकों को भी) बता देता हो । Jain Education International आगम विषय कोश - २ ० O निश्राप्रेक्षी - जो निष्कारण अपवादों का सेवन करता हो । • असंविग्न - जो संविग्न न हो, पार्श्वस्थ आदि हो । • दुर्बलचारित्र - जो निष्कारण मूलगुण-उत्तरगुणप्रतिसेवी हो । इस प्रकार के शिष्य को वाचना देने वाला प्रवचन की हानि करता है। उसके लिए बोधि दुर्लभ होती है । जो बहुश्रुत, परिणामक, रहस्यधारक, अप्रकीर्णविद्य, अनिश्राप्रेक्षी, संविग्न और दृढ़चरित्र है, वह पीठिका की वाचना लेने योग्य है । २४० १८. गणधारण में निशीथ की भूमिका सुत्ते अणित लहुगा, अत्थे अणित धरेति चउगुरुगा । सुत्तेण वायणा अत्थे, सोही तो दो वऽणुण्णाया ॥ अवि य विणा सुत्तेणं, ववहारे तू अपच्चओ होति । तेणं उभयधरो ऊ, गणधारी सो अणुण्णातो ॥ असती कडजोगी पुण, अत्थे एतम्मि कप्पति धरे । जुण्णमहल्लो सुत्तं न तरति पच्चुज्जयारेउं ॥ (व्यभा २३३३-२३३५ ) जो औत्सर्गिक आपवादिक सूत्र और उनके अर्थ को नहीं जानता हुआ गणधारण करता है, वह क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ऐसा क्यों ? गणधारक सूत्र ज्ञात होने पर वाचना देता है, अर्थ ज्ञात होने पर प्रायश्चित्त द्वारा शोधि करता है। सूत्र के बिना व्यवहार करने पर अविश्वास उत्पन्न होता है। अतः सूत्र और अर्थउभयज्ञाता ही गणधारण के लिए अनुज्ञात है । सूत्रार्थयुक्त निशीथधारी के अभाव में कृतयोगी गणधारण कर सकता है। जो पहले उभयधर था किन्तु अब जिसे केवल अर्थ ज्ञात है, सूत्र याद नहीं है, वह कृतयोगी है। जो शरीर और वय से जीर्ण है, उसके लिए पुनः सूत्रों का स्मरण - संधारण शक्य नहीं है १९. निशीथविस्मृति के हेतु : वैद्य दृष्टांत I धम्म कहनिमित्तादी, तु पमादो तत्थ होति नायव्वो । मलयवति - मगधसेणा, तरंगवइयाइ धम्मकहा ॥ गह- चरिय-विज्ज-मंता, चुण्ण-निमित्तादिणा पमादेणं । नम्मी संधयती, असंधयंती व सा न लभे ॥ जदि से सत्थं न, पेच्छह से सत्थकोसगं गंतुं । हीरति कलंकितेसुं, भोगो जूतादिदप्पेणं ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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