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________________ कृतिकर्म को वन्दना करता है। साध्वी उत्सर्गत: वन्द्य नहीं होती, किन्तु यदि वह बहुश्रुत महत्तरा हो, अपूर्व श्रुतस्कंध की धारक हो और यदि अन्य मुनि उसके पास उद्देश, समुद्देश आदि ग्रहण करते हों तो वे मुनि उसको फेटा वंदनक देते हैं। ९. निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म : दृष्टांत मूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो होइ । उत्तरगुणपडिसेवी, संचयऽवोच्छेदतो भस्से ॥ अंतो भयणा बाहिं, तु निग्गते तत्थ मरुगदिट्टंतो । संकर सरिसव सगडे, मंडव वत्थेण दिट्टंतो ॥ पक्कणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ । इय गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥ संकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी अ होइ अवरद्धे । उत्तरगुणपडवी, आलंबणवज्जिओ वज्जो ॥ १९० शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि तानि चामूनि - अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च स्थानान्याहुश्चतुर्दश ॥ (बृभा ४५२१-४५२४ वृ) संयम श्रेणी में आरूढ़ मुनि दो प्रकार के होते हैंमूलगुणप्रतिसेवी अर्थात् चारित्र के मूलगुणों में दोष लगाने वाले और उत्तरगुणप्रतिसेवी अर्थात् उत्तरगुणों में दोष लगाने वाले । मूलगुणप्रतिसेवी के चारित्र से भ्रष्ट होने पर स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है। उसके प्रति कृतिकर्म करना निषिद्ध है। किन्तु जो उत्तरगुणप्रतिसेवी है, वह दोषों का संचय करते-करते चारित्र से भ्रष्ट होता है। अतः उसका परिज्ञान संभव नहीं है। उसके प्रति कृतिकर्म की भजना है - कृतिकर्म किया भी जाता है और नहीं भी किया जाता। इस विषय में ये दृष्टांत हैं १. संकर दृष्टांत - एक बगीचे को एक सारणी से पानी दिया जाता था। उस सारणी में एक-एक कर संकर (तिनके आदि) इकट्ठे होते गए। किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। सारणी अवरुद्ध हो गई। पानी अन्यत्र बहने लगा । बगीचा सूख गया। २. सर्षप - शकट - मंडप दृष्टांत - एक शकट अथवा तृणमंडप पर सर्षप के दाने फेंके गए। वे वहीं स्थिर हो गए। दानों के प्रक्षेप का क्रम चलता रहा और कालान्तर में वह शकट और Jain Education International आगम विषय कोश - २ मंडप - दोनों उन सर्षप के दानों के भार से भग्न हो गए। ३. वस्त्र दृष्टांत - एक वस्त्र पर तैल का एक धब्बा लग गया। उसे धोकर साफ नहीं किया गया। और भी तैल के धब्बे लगते गए। प्रक्षालन के अभाव में वह पूरा वस्त्र मलिन हो गया। इसी प्रकार उत्तरगुणप्रतिसेवी मुनि दोषसंचय और निरंतर दोषसेवन के परिणाम से उपरत न होने के कारण धीरेधीरे चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है। जो संयमश्रेणि में स्थित है, उसके प्रति कृतिकर्म की भजना है जिसका चारित्र उत्तरगुण संबंधी अनेक अपराधों से मलिन है, जो दोषसेवन कर पश्चात्ताप नहीं करता और पुष्ट आलंबन के बिना प्रतिसेवना करता है, वह कृतिकर्म के योग्य नहीं है। सालंबप्रतिसेवी वन्दनीय है । जो संयमणि से बाह्य है, वह वन्दनीय नहीं है। ४. मरुक दृष्टांत - जो ब्राह्मण शकुनीपारग अर्थात् वेद, वेदांग आदि चौदह विद्यास्थानों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योति, निरुक्ति, मीमांसा, आन्वीक्षिकी, धर्मशास्त्र और पुराण का पारगामी है, वह भी मातंग के घर में रहता हुआ लोक में गर्हित होता है। इसी प्रकार सुविहित मुनि भी पार्श्वस्थ आदि कुशीलों के मध्य रहता हुआ गर्हित होता है। १०. कृतिकर्म के अनर्ह सेढीठाणठियाणं, किइकम्मं बाहिरे न कायव्वं । पासत्थादी चउरो ॥ (बृभा ४५१५) चारित्र - श्रेणि संबंधी संयमस्थानों में स्थित साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए। जो श्रेणि बाह्य श्रमण आदि हैं, उनका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। उनके चार प्रकार हैं१. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, यथाच्छंद । २. काथिक, प्राश्निक, मामाक, संप्रसारक । ३. अन्यतीर्थिक । ४. गृहस्थ । ११. वन्दना के अवश्यकरणीय काल देसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य।" (बृभा ४४६७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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