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________________ आगम विषय कोश-२ १८९ कृतिकर्म केवलिणा वा कहिए, अवंदमाणो व केवलिं अन्न। श्रेणिस्थान का अर्थ है सीमास्थान । संयमश्रेणी में स्थित वागरणपुव्वकहिए, देवयपूयासु व मुणंति॥ चार प्रकार के मुनि-प्रत्येकबुद्ध, जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारी (बृभा ४५०७, ४५०८) तथा गच्छअप्रतिबद्ध यथालंदिक-कार्य से बाह्य होते हैं। व्यवहारनय भी निश्चित रूप ये बलवान होता है। कार्य के दो प्रकार हैं-वन्दनकार्य और कार्यकार्य। इसके आधार पर केवली भी जब तक वह केवलज्ञानी केवली वन्दनकार्य दो प्रकार का होता है-अभ्युत्थान और कृतिकर्म। के रूप में अनभिजात रहता है, तब तक वह व्यवहारनय की कार्यकार्य का अर्थ है-अवश्य कर्त्तव्यरूप कार्य। इसके बलवत्ता को जानता हआ छद्मस्थ गरु को भी वन्दना करता है। कुलकार्य, गणकार्य, संघकार्य आदि अनेक प्रकार हैं। इन चार स्थानों से केवली केवली के रूप में ज्ञात होता है दोनों प्रकार के कार्यों को प्रत्येकबुद्ध आदि चारों प्रकार के १. दूसरे केवलज्ञानी के द्वारा बताये जाने पर।। मुनि नहीं करते-वे इनसे बाह्य होते हैं। २. दूसरे परिज्ञात केवली को वंदना न करने पर। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक, आपन्नपरिहारिक, प्रतिमा प्रतिपन्न और साध्वी-ये चार प्रकार के संयमी उपर्युक्त दोनों प्रकार ३. अतिशयज्ञानगम्य अर्थ का व्याकरण करने पर। के कार्यों को करते भी हैं और नहीं भी करते। उनके कार्य करने की ४. सन्निहित देवताओं से पूजित-संस्तुत होने पर। भजना है। ६. स्थविरकृत वन्दना से प्रेरणा कुल, गण और संघ की सुरक्षा या प्रभावना का कोई थेरस्स तस्स किं तू, एद्देहेणं किलेसकरणेणं। __ अनिवार्य प्रयोजन उपस्थित हो गया हो, संघ में दूसरा कोई भण्णति एगत्तुवओग सद्धाजणणं च तरुणाणं॥ साधु उस कार्य को करने में समर्थ न हो, तब ये उस कार्य (व्यभा २३४६) को संपादित करते हैं। श्रुतग्रहण के लिए स्थविर अवमरात्निक आदि को गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मुनि जिस आचार्य के पास वन्दना करता है। यह देखकर शिष्य ने पूछा-ये वृद्ध मुनि सूत्रार्थ ग्रहण करते हैं, वह चाहे छोटा भी क्यों न हो, उसके प्रति इतना कष्ट क्यों करते हैं ? वंदनकार्य (अभ्युत्थान-कृतिकर्म) करते हैं, शेष साधुओं के गुरु ने कहा-स्थविर मुनि वन्दना-विनयव्यवहार प्रति नहीं करते। इसी प्रकार आपन्नपारिहारिक, प्रतिमाप्रतिपन्न करता हुआ सूत्र-अर्थ के साथ एकत्व उपयोगउपयुक्त और साध्वी के वंदन-विषयक अनेक विकल्प हैं। (दत्तचित्त) होकर सूत्र-अर्थ को सम्यग् ग्रहण करता है। ८. श्रेणिस्थित की वंदना के विकल्प तरुण साधुओं के मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है-हमारे महान् अंतो वि होइ भयणा, ओमे आवण्ण संजतीओ य.. दुर्बल-वृद्ध स्थविर भी श्रुतप्रदाता का इतना विनय करते हैं तो __ आपन्नपरिहारिको न वन्द्यते, स पुनराचार्यान् वन्दते। हमें भी श्रुतविनय अवश्य करना चाहिए। ...."संयत्योऽपि उत्सर्गतो न वन्द्यन्ते, अपवादपदे तु यदि ७. वंदन कार्य और संघकार्य की इयत्ता बहुश्रुता महत्तरा काचिदपूर्वश्रुतस्कन्धं धारयति ततसेढीठाणे सीमा, कज्जे चत्तारि बाहिरा होति। स्तस्याः सकाशात् तत्र ग्रहीतव्ये उद्देश-समुद्देशादिषु सा सेढीठाणे दुयभेययाएँ चत्तारि भइयव्वा॥ फेटावन्दनकेन वन्दनीया। (बृभा ४५३५ वृ) पत्तेयबद्ध जिणकप्पिया य सुद्धपरिहारहालंदे। जो संयमश्रेणी के अन्तर्गत मुनि हैं, उनके वन्दनएए चउरो दुगभेदयाएँ, कज्जेसु बाहिरगा॥ विषयक अनेक विकल्प हैं । जो अवमरात्निक मुनि आलोचनागच्छम्मि णियमकजं, कज्जे चत्तारि होंति भइयव्वा। वाचना आदि में नियुक्त है, उसको आलोचना-वाचना के गच्छपडिबद्ध आवण्ण पडिम तह संजतीतो य॥ समय सभी वन्दना करते हैं, अन्यथा नहीं। आपन्नपारिहारिक (बृभा ४५३२-४५३४) अन्य मुनियों द्वारा वन्द्य नहीं होता। वह भी केवल आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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