SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कायक्लेश १७६ आगम विषय कोश-२ १. स्थानायतिक-कायोत्सर्ग में स्थिर होना। (द्र कायोत्सर्ग) आसन तीन प्रयोजनों से किए जाते हैं-१. इन्द्रिय२. प्रतिमास्थायी-भिक्षुप्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित निग्रह के लिए २. विशिष्ट विशुद्धि के लिए और ३. ध्यान के रहना। लिए। विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इन्द्रिय३. नैषधिका-बैठकर किए जाने वाले आसन । इसके पांच निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते हैं इसलिए प्रकार हैं उन्हें कायक्लेश की कोटि में रखा गया। ध्यान के लिए कठोर ० समपादपुता-पैरों और पुतों को सटाकर भूमि पर बैठना।। आसन का विधान नहीं है। वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की ० गोनिषधिका-गाय की तरह बैठना। दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यंक-ये दो आसन ही ० हस्तिशुण्डिका-पुतों के बल पर बैठ कर एक पैर को पर्याप्त हैं। -उसअ पृ १५२, १५३) ऊंचा रखना। २. साध्वी और आसन ( अभिग्रहविशेष) ० पर्यंका-पैरों को मोड़ पिंडलियों के ऊपर जांघों को रखकर नो कप्पइ निग्गंथीए ठाणाययाए होत्तए।..... बैठना और एक हस्ततल पर दूसरा हस्ततल रख कर नाभि के पडिमट्ठाइयाए"""वीरासणियाए""॥ (क५/२१-२३) पास रखना। वीरासण गोदोही, मुत्तुं सव्वे वि ताण कप्पंति। ० अर्द्धपर्यंका-एक पैर को मोड. पिंडली के ऊपर जांघ को ते पुण पडुच्च चेटुं, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा ॥ रखना और दूसरे पैर के पंजों को भूमि पर टिकाकर घुटनों को तवो सो उ अणुण्णाओ, जेण सेसं न लुप्पति। ऊपर रखना। अकामियं पि पेल्लिज्जा, वारिओ तेणऽभिग्गहो। ४. उत्कुटुक-उकडू आसन-पुतों को ऊंचा रखकर पैरों के लज्जं बंभं च तित्थं च, रक्खंतीओ तवोरता। बल पर बैठना। गच्छे चेव विसुझंती, तहा अणसणादिहिं॥ ५. वीरासन-भूमि पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठने से कारणमकारणम्मि य, गीयत्थम्मि य तहा अगीयम्मि। शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के एए सव्वे वि पए, संजयपक्खे विभासिज्जा। निकाल लेने पर स्थित रहना। मुक्तजानुक की तरह निरालम्ब __ अभिग्रहविशेषादूर्ध्वस्थानादीनि संयतीनांन कल्पन्ते, स्थित रहना दुष्कर है, इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सामान्यतः पुनरावश्यकादिवेलायां यानि क्रियन्ते तानि सकता है, इसलिए इसका नाम वीरासन है। कल्पन्त एव॥(बृभा ५९५६, ५९५७,५९६१,५९६४ वृ) ६. दण्डायत-दण्ड की तरह आयत होकर-पैर पसार कर साध्वी ऊर्ध्वस्थान, प्रतिमास्थान, वीरासन, गोदोहिका बैठना। आदि आसन नहीं कर सकती-सूत्र में यह निषेध ७. लगण्डशयन-वक्र काष्ठ की भाति एड़ियों और सिर को अभिग्रहविशेष की अपेक्षा से है, सामान्य चेष्टा की अपेक्षा से भूमि से सटाकर शेष शरीर को ऊपर उठाकर सोना। नहीं। साध्वी आवश्यक आदि के समय गोदोहिका आदि ८. अधोमुखशयन-ओंधा लेटना। आसन कर सकती है। ९. उत्तानशयन-सीधा लेटना। शिष्य ने पूछा-अभिग्रह आदि रूप तप कर्मनिर्जरा १०. आम्रकब्जिका-आम्र-फल की भांति टेढ़ा होकर सोना। के लिए किया जाता है. फिर वह साध्वी के लिए निषिद्ध ११. एकपार्श्वशयन-दाईं या बाईं करवट लेटना। एक पैर क्यों ? गुरु ने कहा-वही तप अनुज्ञात है, जिससे ब्रह्मचर्य को संकुचित कर दूसरे पैर को उसके ऊपर से ले जाकर आदि गणों का लोप नहीं होता। अभिग्रहविशेष या आसनविशेष फैलाना और दोनों हाथों को लम्बा कर सिर की ओर फैलाना। में स्थित साध्वी को उसके न चाहते हुए भी कोई कामी पुरुष (आसन का प्रभाव-उकडू-आसन का प्रभाव वीर्य- उसे शील से च्यत कर सकता है. अतः अभिग्रह आदि का ग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत निषेध किया गया है। फलदायी है। वीरासन से धैर्य, सन्तुलन और कष्ट-सहिष्णुता साध्वी गच्छ में रहकर ही लज्जा, ब्रह्मचर्य और तीर्थ का विकास होता है।-भ २/६२ का भाष्य की रक्षा करती हुई अनशन, स्वाध्याय आदि में संलग्न होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy