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________________ आगम विषय कोश - २ वह चारित्र की विशोधि करता है और अभिनव कर्मरोग का निरोध करता है । १७१ ० मासकल्प और उसके प्रकार गामंसि वा नगरंसि वा "सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंत - गिम्हासु एगं मासं वत्थए ॥'''' सपरिक्खवंसि सबाहिरियंसि हेमंत गिम्हासु दो मासे वत्थए - अंतो एगं मासं, बाहिं एगं मासं । अंतो वसमाणाणं अंतोभिक्खायरिया, बाहिं वसमाणाणंबाहिं भिक्खायरिया ॥ - T .......सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंत - गिम्हासु दो मासे वत्थए । सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पड़ निग्गथीणं हेमंत गिम्हासु चत्तारि मासे वत्थए - अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे । अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया । (क १/६-९) निर्ग्रन्थ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु (आठ महीनों) में एक गांव या नगर में, जहां परिक्षेप ( बाड़ आदि का घेरा) हो, किन्तु बाहिरिका (परकोटे के बाहर बस्ती) न हो, वहां एक मास रह सकते हैं । परिक्षेप और बाहिरिका युक्त गांव में दो मास रह सकते हैं- भीतर एक मास, बाहर एक मास । वे भीतर रहते हुए भीतर और बाहर रहते हुए बाहर भिक्षाचर्या करें। निग्रंथियां बाहिरिका रहित परिक्षेप वाले गांव में दो मास रह सकती हैं, परिक्षेप और बाहिरिका युक्त गांव में चार मास रह सकती हैं- भीतर दो मास, बाहर दो मास । वे भीतर रहती हुईं भीतर, बाहर रहती हुईं बाहर भिक्षाचर्या करें। दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे चेव थेरकप्पे य । एक्क्को वि यदुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो ॥ (बृभा ६४३१) मासकल्प के दो प्रकार हैं - जिनकल्पी मुनि का मासकल्प और स्थविरकल्पी मुनि का मासकल्प । प्रत्येक के दोदो प्रकार हैं- अस्थितकल्प और स्थितकल्प । प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं का मासकल्प स्थित है और शेष तीर्थंकरों के मुनियों का अस्थित । प्रथम- अंतिम तीर्थंकर के मुनि ऋतुबद्धकाल में नियमतः मासकल्प से विहार करते हैं और शेष मुनियों के लिए यह नियम नहीं है। वे मास पूरा होने से पहले भी विहार कर सकते हैं अथवा एक स्थान पर देशोनपूर्वकोटि तक भी रह सकते हैं। Jain Education International ० कल्याणक पर्युषणाकल्प पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अट्ठितो य थेराणं । एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति ॥ चाउम्मासुक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहणेणं । ठितमट्ठितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णयरे ॥ (बृभा ६४३२, ६४३३) पर्युषणाकल्प दो प्रकार का है— स्थित और अस्थित । स्थविरकल्पी तथा जिनकल्पी मुनियों के पर्युषणाकल्प दोनों प्रकार का होता है। उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प चार मास- -आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का होता है। जघन्य पर्युषणाकल्प ७० दिन-रात का - भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिकी पूर्णिमा तक का होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के मुनियों का यह पर्युषणा का स्थितकल्प है। मध्यम तीर्थंकरों का यह अस्थत है। वृष्टि होने पर वे एक क्षेत्र में अवस्थित रहते हैं, अन्यथा विहार करते हैं। विशेष कारण उपस्थित होने पर इस क्रम में व्यत्यय भी होता है । * पर्युषणा की सामाचारी द्र पर्युषणाकल्प कल्पिक - जिस समाचरण के लिए जितने श्रुतग्रंथों का अध्ययन निर्धारित है, उतने श्रुतग्रंथों का ज्ञाता मुनि । कल्पिक के बारह प्रकार हैं। द्र सूत्र कल्याणक - प्रायश्चित्तस्वरूप दिया जाने वाला प्रत्याख्यान - विशेष । चउरो चडत्थभत्ते, आयंबिल एगठाण पुरिमङ्कं । णिव्वीयग दायव्वं 11 चतुः कल्याणकं प्रायश्चित्तं चत्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वार्याचाम्लानि चत्वारि एकस्थानानि...... चत्वारि पूर्वार्द्धानि चत्वारि निर्विकृतिकानि च भवन्ति । पञ्चकल्याणकं तत्र चतुर्थ भक्तादीनि प्रत्येकं पञ्च पञ्च भवन्ति । (बृभा ५३६० वृ) प्रायश्चित्त विशेष का नाम है कल्याणक । चार कल्याणक का अर्थ है - चार उपवास, चार आयंबिल, चार एकस्थान (एकाशन), चार पूर्वार्ध और चार निर्विकृतिक । पांच कल्याणक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर पांच उपवास, पांच आयंबिल, पांच एकस्थान, पांच पूर्वार्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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