SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पस्थिति १७० आगम विषय कोश-२ * कृतिकर्म के विकल्प आदि द्र कृतिकर्म ."प्रतिश्रयाद् निर्गत्य हस्तशतात् परतो गत्वा भूयः ० व्रत ( चातुर्याम-पंचयाम ) : ऋजुप्राज्ञ आदि प्रत्यागमने हस्तशतमध्येऽप्युच्चारादेः परिष्ठापने कृते।" पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। (बृभा ६४२६ वृ) मज्झिमगाण जिणाणं, चाउज्जामो भवे धम्मो॥ प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु प्रतिश्रय से सौ हाथ पुरिमाण दुव्विसोझो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। की दूरी तक गमनागमन करने पर, सौ हाथ की दूरी के मध्य मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोझो सुरणुपालो य॥ परिष्ठापन करने पर तथा अतिचार लगने या नहीं लगने पर (बुभा ६४०२,६४०३) भी प्रातः और सायंकाल नियमतः प्रतिक्रमण करते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ और अंतिम तीर्थंकर महावीर ने बिना दोष प्रतिक्रमण क्यों ? वैद्यत्रयी दृष्टांत पांच महाव्रत धर्म का निरूपण किया अतिचारस्स उ असती, णणुहोति णिरत्थयं पडिक्कमणं। १. सर्व प्राणातिपातविरमण ४. सर्व मैथुनविरमण ण भवति एवं चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु॥ २. सर्व मृषावादविरमण ५. सर्व परिग्रहविरमण सति दोसे होअगतो, जति दोसो णत्थि तो गतो होति । ३. सर्व अदत्तादानविरमण बितियस्स हणति दोसं, न गुणं दोसं व तदभावा॥ ___ बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का निरूपण किया- दोसं हंतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि। १. सर्व प्राणातिपातविरमण ३. सर्व अदत्तादानविरमण ततियसमाहिकरस्स उ, रसातणं डिंडियसुतस्स॥ २. सर्व मृषावादविरमण ४. सर्व बाह्यआदानविरमण जति दोसो तं छिंदति, असती दोसम्मि णिज्जरं कुणई। पूर्ववर्ती साधु ऋजु-जड़ होते हैं। उनके लिए मुनि के कुसलतिगिच्छरसायणमुवणीयमिदं पडिक्कमणं॥ आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। (बृभा ६४२७-६४३०) चरमवर्ती साधु वक्र-जड़ होते हैं। उनके लिए मुनि शिष्य ने पूछा-भंते! अतिचार न लगने पर प्रतिक्रमण का आचार-पालन कठिन है। करना क्या निरर्थक नहीं है? आचार्य ने कहा-वह निरर्थक मध्यवर्ती साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे मुनि-आचार को कभी नहीं होता। यह उदाहरण ज्ञातव्य हैयथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी सरलता से एक राजा ने सोचा-मेरे प्रिय पुत्र को ऐसे रसायन का करते हैं। द्र ऋजुप्राज्ञ सेवन कराऊं, जिससे यह सदा नीरोग रहे। उसने वैद्यों को ० ज्येष्ठकल्प बुलाया। वैद्य आए। राजा ने एक वैद्य से पछा-तम्हारी औषधि पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसु वा ठविओ। का क्या प्रयोजन है ? उसने कहा-यदि कोई रोग हो, तो मेरी एस कितिकम्मजेदो, ण जाति-सुततो दुपक्खे वी॥ औषधि उसको उपशांत कर देती है, अन्यथा वह रोगी को ही (बृभा ६४०८) मार डालती है। दूसरे वैद्य ने कहा-यदि रोग हो, तो मेरी औषधि उसे उपशांत कर देती है और यदि रोग न हो, तो न मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय जो सामायिक वह लाभ करती है और न हानि। तीसरे वैद्य ने कहा-मेरी चारित्र में तथा प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय जो औषधि यदि रोग है, तो वह उसको मिटा देती है। यदि कोई छेदोपस्थापनीय चारित्र में पूर्वदीक्षित है, वही कृतिकर्मज्येष्ठ रोग नहीं है, तो मेरी औषधि का सेवन करने वाला अपना है। साधुवर्ग और साध्वीवर्ग में जन्मपर्याय या श्रुत से ज्येष्ठ वर्ण, रूप, यौवन तथा लावण्य बढ़ाता है और भविष्य में यहां विवक्षित नहीं है। उसके नया रोग उत्पन्न नहीं होता। राजा ने तीसरे वैद्य से ० प्रतिक्रमण राजकुमार की चिकित्सा करवाई। गमणाऽऽगमण वियारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं। इसी प्रकार अतिचार लगा है, तो प्रतिक्रमण उस अतिचार नियमेण पडिक्कमणं, अतियारो होउ वा मा वा॥ की विशोधि कर देता है और यदि अतिचार नहीं लगा है, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy