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________________ आगम विषय कोश-२ १४३ उपसम्पदा २. आचार्य श्लथ है, गच्छ नहीं। (या पन्द्रह) दिन तक कुछ नहीं कहता, फिर भी वह शुद्ध ३. गच्छ भी श्लथ है, आचार्य भी श्लथ है। है। सावधान करने पर यदि वे कहें कि 'तुम्हें क्या प्रयोजन? ४. न गच्छ श्लथ है, न आचार्य। हम श्लथ हैं तो हमारी दुर्गति होगी। तुम क्यों दुःखी हो रहे गच्छ में चारित्राचार में अवसन्नता या श्लथता के हो?' ऐसा कहने वाले गुरु और गच्छ को छोड़कर अन्य किसी मुख्य दस बिंदु हैं उद्यतविहारी गण में संक्रमण करना चाहिये। ० प्रतिलेखन--समय पर प्रतिलेखना न हो, प्रतिलेखना में आचार्य के उपसम्पदा ग्रहण के हेतु विपर्यास हो अथवा जहां गुरु, ग्लान आदि की उपधि की आयरिओ वि हु तिहि कारणेहि णाणट्ठदंसणचरित्ते। प्रतिलेखना न हो। नाणे महकप्पसुयं, ० दिवसशयन-निष्कारण दिन में शयन हो। विजा-मंत-णिमित्ते, हेतूसत्थ? सणवाए। निक्षेप-आदान-प्रमाद-वस्तु को रखते या ग्रहण करते समय चरितट्ठा पुव्वगमो, अहव इमे होंति आएसा॥ प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करे। आयरिय-उवज्झाए, ओसण्णोहाविते व कालगते। ० विनय-यथायोग्य विनय का प्रयोग न हो। ओसण्ण छव्विहे खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणता॥ ० स्वाध्याय-सूत्र-अर्थ पौरुषी न करे अथवा अकाल या (निभा ५५७१-५५७४) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करे। आचार्य भी तीन कारणों से उपसम्पदा ग्रहण करते हैं० आलोचना-पाक्षिक आलोचना और दोषों की आलोचना न . ज्ञानार्थ-महाकल्पश्रुत आदि के अध्ययन के लिए। करे या आहार आदि लाकर गुरु को न दिखाये। जीमनवार में दर्शनार्थ-विद्या, मंत्र और निमित्त संबंधी शास्त्रों को जानने के आहार की गवेषणा करे। लिए तथा गोविन्दनियुक्ति आदि हेतुशास्त्र पढ़ने के लिए। ० स्थापना-स्थापनाकुलों का निर्धारण न करे अथवा स्थापित ० चारित्रार्थ-चारित्रविशोधि के स्थानों की अभिवृद्धि तथा कुलों में गुरु की अनुमति बिना प्रवेश करे। सामाचारी की विशिष्ट परिपालना के लिए। अथवा इसमें तीन ० भक्तार्थ-मण्डली में भोजन न कर अकेला ही खाये, गुरु आदेश भी हैंको दिखाये बिना ही खाये। १. कोई आचार्य अवसन्न हो गया है-पार्श्वस्थ, अवसन्न, ० पटलक-गठरियों में लाया हुआ आहार करे। कुशील, संसक्त, नैयतिक (नित्यपिंडखादक) और यथाच्छन्द० शय्यातर-शय्यातरपिंड खाये, सदोष भिक्षा ग्रहण करे। इन छहों में से किसी भी प्रकार के अवसन्न आचार्य का जो गण की इस विषण्णता या शिथिलता के निवारण के शिष्य आचार्यपद के योग्य है, वह वय और श्रुत से व्यक्त है या लिए गुरु से प्रेरणा दिलवाये या स्वयं प्रेरणा दे। आचार्य । अव्यक्त-इसकी मार्गणा के लिए। विषण्ण हो तो स्वयं प्रेरणा दे या गण प्रेरणा दे। २. अवधावित-कोई आचार्य या उपाध्याय अवधावन कर गण और आचार्य दोनों विषण्ण हों तो स्वयं अथवा गृहस्थ बन गया है तो उस गण की व्यवस्था के लिए। जो सामाचारी पालन में सजग हैं, वे गण और आचार्य को ३. कालगत-कोई आचार्य दिवंगत हो गया हो तो उस गण आचारपालन में जागरूकता हेतु प्रेरित करें। स्थान (आचार्य, की सार-संभाल के लिए। शैक्ष आदि) के अनुरूप अनुलोम-प्रतिलोम, मधुर-कठोर वचनों ३. गण-संक्रमण से पूर्व अनुमति अनिवार्य से प्रेरित करें। भिक्खूय गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं प्रेरणा या सारणा-वारणा करने पर भी ये संयम में उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए. कप्पड़ से आपुच्छित्ता उद्यमशील होंगे या नहीं-यह ज्ञात न हो तो उत्कृष्ट एक आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपपक्ष तक उनके साथ रहा जा सकता है। सामाचारी में अवसन्न जित्ताणं विहरित्तए....ते य से नो वियरेज्जा, एवं से गरु को जो शिष्य लज्जा या गौरव के कारण तीन अथवा पांच नो कप्पड.....। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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